SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ योग-शास्त्र दृढाभ्यासस्ततः कुर्याद् वेधं वरुण-वायुना। कर्पूरा-गुरु-कुष्ठादि-गन्ध-द्रव्येषु सर्वतः ।। २६८ ।। एतेषु लब्धलक्षोऽथ' वायुसंयोजने पटुः। पक्षि-कायेषु सूक्ष्मेषु विदध्यावधमुद्यतः ।। २६६ ।। पतङ्ग-भृङ्ग-कायेषु जाताभ्यासो मृगेष्वपि। .. अनन्यमानसो धीरः सञ्चरेद्विजितेन्द्रियः ।। २७० ॥ नराश्व-करिकायेषु प्रविशन्निस्सरन्निति । कुर्वीत संक्रमं पुस्तोपलरूपेष्वपि क्रमात् ।। २७१ ।। पूरक क्रिया के द्वारा जब वायु अन्दर ग्रहण की जाती है, तब हृदयकमल अधोमुख और संकुचित हो जाता है । वही हृदम-कमल कुम्भक करने से विकसित और ऊर्ध्वमुख हो जाता है । अतः पहले कुम्भक करना चाहिए और फिर हृदय-कमल की वायु को रेचक क्रिया द्वारा हिलाकर हृदय-कमल में से वायु को ऊपर खींचना चाहिए । यह रेचक क्रिया वायु को बाहर निकालने के लिए नहीं, किन्तु अन्दर ही कुम्भक के बन्धन से वायू को मुक्त करने के लिए की जाती है। उक्त क्रिया करने के पश्चात् उस वायु को ऊपर की ओर प्रेरित करके, बीच की दुर्भेद्य ग्रन्थि को भेद कर ब्रह्मरन्ध्र में ले जाना चाहिए । यहाँ योगी को समाधि प्राप्त हो सकती है। यदि योगी को कौतुक-चमत्कार करने या देखने की इच्छा हो तो उस पवन को ब्रह्मरन्ध्र से बाहर निकाल कर, समाधि के साथ आक की रुई में धीरे-धीरे वेध करना चाहिए अर्थात् पवन को उस रुई पर छोड़ना चाहिए। आक की रुई पर बार-बार अभ्यास करने से, अर्थात् पवन को बार-बार ब्रह्मरन्ध्र पर और बार-बार रुई पर लाने से जब अभ्यास परिपक्व हो जाए, तब योगी को स्थिरता के साथ मालती आदि के पुष्पों को लक्ष्य बनाकर सावधानी से पवन को उन पर छोड़ देना चाहिए। १. लक्ष्योऽथ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy