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________________ पंचम प्रकाश न स्वनासां स्वजिह्वां न न ग्रहान्नामल दिशः। नापि सप्तऋषीन् यहि' पश्यति म्रियते तदा ॥ १६७ ।। जो मनुष्य अपनी नाक को, अपनी जीभ को, ग्रहों को, निर्मल दिशाओं को या आकाश में स्थित सप्त-ऋषि तारानों को नहीं देख सकता, उसका दो दिन में मरण हो जाता है । प्रभाते यदि वा सायं ज्योत्स्नावत्यामथो निशि। प्रवितत्य निजी बाहू निजच्छायां विलोक्य च ॥ १६८ ॥ शनैरुत्क्षिप्य नेत्रे स्वच्छायां पश्येत्ततोऽम्बरे । न शिरो दृश्यते तस्यां यदा स्यान्मरणं तदा ॥ १६६ ।। नेक्ष्यते वामबाहुश्चेत् पुत्र-दार-क्षयस्तदा । यदि दक्षिणबाहुर्नेक्ष्यते भ्रातृ-क्षयस्तदा ॥ १७० ॥ अदृष्टे हृदये मृत्युरुदरे च धन-क्षयः । गुह्ये पितृ-विनाश व्याधिरूरुयुगे भवेत् ॥ १७१ ॥ प्रदर्शने पादयोश्च विदेशगमनं भवेत् । अदृश्यमाने सर्वाङ्ग सद्यो मरणमादिशेत् ॥ १७२ ॥ .. कोई व्यक्ति प्रातःकाल, सायंकाल या शुक्ल पक्ष की रात्रि में प्रकाश में खड़ा होकर, दोनों हाथ नीचे लटका कर कुछ देर तक अपनी छाया देखता रहे । तत्पश्चात् नेत्रों को धीरे-धीरे छाया से हटाकर ऊपर अाकाश में देखने पर उसे पुरुष की आकृति दिखाई देगी। यदि उस प्राकृति में उसे अपना मस्तक दिखाई न दे, तो समझना चाहिए कि मेरी मृत्यु होने वाली है। यदि उसे बांयाँ हाथ दिखाई न दे, तो पुत्र या स्त्री की मृत्यु होती है और यदि दाहिना हाथ दिखाई न दे, तो भाई की मृत्यु होती है। यदि उसे अपना हृदय दिखाई न दे, तो उसकी अपनी १. व्योम्नि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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