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________________ १६६ योग-शास्त्र कृषिसेवादिकं सर्वमपि सिद्धं विनश्यति । मृत्यु-भीः कलहो वैरं त्रासश्च पवने भवेत् ।। ५५ ।। भयं शोकं रुजं दुःखं विघ्नव्यूह - परम्पराम् । संसूचयेद्विनाशञ्च, दहनो दहनात्मकः ॥ ५६ ॥ जिस समय पुरन्दर - वायु बह रहा हो उस समय छत्र, चामर, हाथी, अश्व, स्त्री एवं राज्य आदि सम्पत्ति के विषय में कोई प्रश्न करे या इनके निमित्त कोई कार्य प्रारम्भ करे, तो इच्छित अर्थ की प्राप्ति होती है । : प्रश्न करते समय या कार्य आरम्भ करते समय यदि वरुण वायु बहता हो, तो उससे राज्यादि से परिपूर्ण पुत्र, स्वजन, बन्धु और उत्तम वस्तु की प्राप्ति होती है । प्रश्न या कार्यारंभ के समय पवन नामक वायु बहता हो, तो खेती और सेवा - नौकरी सम्बन्धी सिद्ध हुआ कार्य भी नष्ट हो जाता है, बिगड़ जाता है और मृत्यु का भय, क्लेश, वैर तथा त्रास उत्पन्न होता है । प्रश्न या कार्यारंभ के समय दहन स्वभाव वाला दहन-वायु बहता हो, तो वह भय, शोक, रोग, दुःख और विघ्नों के समूह की परम्परा एवं धन-धान्य के विनाश का संसूचक है । शशाङ्कः- रवि-मार्गेण वायवा मण्डलेष्वमी । विशन्तः शुभदाः सर्वे निष्क्रामन्तोऽन्यथा स्मृताः ॥ ५७ ॥ यह पुरन्दर प्रादि चारों प्रकार के वायु चन्द्रमार्ग या सूर्यमार्ग से - air और दाहिनी नाड़ी में होकर प्रवेश करते हों, तो शुभ फलदायक होते हैं और निकल रहे हों, तो अशुभ फलदायक होते हैं । शुभाशुभ होने का कारण Jain Education International प्रवेश- समये वायुर्जीव मृत्युस्तु निर्गमे । उच्यते ज्ञानिभिस्तादृक् फलमप्यनयोस्ततः ॥ ५८ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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