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योग-शास्त्र और शान्त-प्राणायाम में वायु को नासिका आदि पवन निकलने के द्वारों से रोका जाता है । यही दोनों में अन्तर प्रतीत होता है। ६-७. उत्तर और अधर प्राणायाम
आपीयोवं यदूत्कृष्य हृदयादिषु धारणम् । . उत्तरः स समाख्यातो विपरीतस्ततोऽधरः ।। ६ ।। बाहर के वायु का पान करके और उसे ऊपर खींच कर हृदय आदि में स्थापित कर रखना 'उत्तर-प्राणायाम' कहलाता है। इससे विपरीत ऊपर से नीचे की ओर ले जाकर उसे धारण करना 'अधरप्राणायाम' कहलाता है। प्राणायाम का फल
रेचनादुदरव्याधेः कफस्य च परिक्षयः । पुष्टिः पूरक-योगेन व्याधि-घातश्च जायते ।। १० ।। विकसत्याशु हृत्पद्म ग्रन्थिरन्तविभिद्यते । बलस्थैर्य-विवृद्धिश्च कुम्भकाद् भवति स्फुटम् ॥ ११ ॥ प्रत्याहाराद्वलं कान्तिर्दोषशान्तिश्च शान्ततः।
उत्तराधरसेवातः स्थिरता कुम्भकस्य तु ॥ १२ ॥ रेचक-प्राणायाम से उदर की व्याधि का और कफ का विनाश होता है । पूरक-प्राणायाम से शरीर पुष्ट होता है और व्याधि नष्ट होती है ।
कुंभक-प्राणायाम करने से हृदय-कमल तत्काल विकसित हो जाता है, अन्दर की ग्रन्थि का भेदन होता है, बल की वृद्धि होती है और वायु की स्थिरता होती है।
प्रत्याहार करने से शरीर में बल और तेज बढ़ता है । शान्त नामक प्राणायाम से दोषों---वात, पित्त, कफ या सन्निपात की शान्ति होती है। उत्तर और प्रभर नामक प्राणायाम कुम्भक को स्थिर बनाते हैं ।
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