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________________ १. पर्यंकासन चतुर्थ प्रकाश श्रामनों का स्वरूप स्याज्जंघयोरधोभागे पादोपरि कृते सति । पर्यङ्को नाभिगोत्तान - दक्षिणोत्तर पाणिकः ।। १२५ ।। दोनों जंघानों के निचले भाग पैरों के ऊपर रखने पर तथा दाहिना और बायाँ हाथ नाभि के पास ऊपर दक्षिण-उत्तर में रखने से 'पर्यंकासन' होता है । २. वीरासन ३. बज्रासन वामोऽह्रिर्दक्षिणोरूर्ध्व, वामोरूपरि दक्षिणः । क्रियते यत्र तद्वीरोचितं वीरासनं स्मृतम् ।। १२६ ।। बायाँ पैर दाहिनी जांघ पर और दाहिना पैर बांयीं जांघ पर जिस आसन में रखा जाता है, वह 'वीरासन' कहलाता है । यह आसन वीर पुरुषों के लिए उपयुक्त है । १४७ Jain Education International पृष्ठे वज्राकृतीभूते दोर्भ्यां वीरासने सति । गृह्णीयात्पादयोर्यत्रांगुष्ठो वज्रासनं तु तत् ।। १२७ ।। पूर्वकथित वीरासन करने के पश्चात्, वज्र की प्राकृतिवत् दोनों हाथ पीछे रखकर, दोनों हाथों से पैर के अंगूठे पकड़ने पर जो प्रकृति बनता है, वह 'वज्रासन' कहलाता है । कुछ प्राचार्य इसे 'बेतालासन' भी कहते हैं । मतान्तर से वीरासन सिहांसनाधिरूढस्यासनापनयने सति 1. तथैवावस्थितिर्या तामन्ये वीरासनं विदुः ॥ १२८ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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