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________________ १४६ योग-शास्त्र ४. माध्यस्थ-भावना - क्रूरकर्मसु निःशंकं, देवता-गुरु-निन्दिषु । आत्मशंसिषु योपेक्षा तन्माध्यस्थ्यमुदीरितम् ॥ १२१ ।। निश्शंक भाव से अभक्ष्य भक्षण, अपेय पान, अगम्य गमन, ऋषि-घात, शिशु-घात प्रादि क्रू र कर्म करने वाले, देव और गुरु की निन्दा करने वाले तथा आत्म-प्रशंसा करने वाले मनुष्यों पर-जिन्हें सलाह या उपदेश देकर सन्मार्ग पर नहीं लाया जा सकता, उपेक्षा भाव होना'माध्यस्थ्य भावना' है। आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः । त्रुटितामपि संधत्ते विशुद्धध्यानसन्ततिम् ॥ १२२ ।। इन चार भावनाओं से अपनी प्रात्मा को भावित करने वाला महाप्राज्ञ पुरुष टूटी हुई विशुद्ध ध्यान की परम्परा को फिर से जोड़ लेता है। ध्यान योग्य स्थान . तीथं वा स्वस्थताहेतु यत्तद्वा ध्यानसिद्धये। कृतासनजयो योगी विविक्तं स्थानमाश्रयेत् ॥ १२३ ॥ . प्रासनों का अभ्यास कर लेने वाला योगी ध्यान की सिद्धि के लिए तीर्थंकरों की जन्म, दीक्षा, कैवल्य या निर्वाण भूमि में जाए। यदि वहाँ जाने की सुविधा न हो तो स्त्री, पशु एवं नपुंसक से रहित किसी भी गिरि-गुफा आदि एकान्त स्थान का प्राश्रय ले । प्रासनों का निर्देश पर्यङ-वीर-वज्राब्ज-भद्र-दण्डासनानि च । ... उत्कटिका गोदोहिका कायोत्सर्गस्तथासनम् ।। १२४ ।। पर्यकासन, वीरासन, वज्रासन, पद्मासन, भद्रासन, दंडासन, उत्कटिकासन, गोदोहिकासन, कायोत्सर्गासन आदि आसन कहे गए हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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