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तृतीय प्रकाश
परन्तु, मधु अपवित्र माना गया है, अतः उसको अपवित्र समझकर उसका देव-स्थान में प्रयोग नहीं करना चाहिए। अभक्ष्य फल
उदुम्बर - वट-प्लक्ष-काकोदुबर-शाखिनाम् । पिप्पलस्य च नाश्नीयात्फलं कृमिकुलाकुलं ॥ ४२ ॥ अप्राप्नुवन्नन्य भक्ष्यमपि क्षामो बुभुक्षया ।
न भक्षयति पुण्यात्मा पंचोदुम्बरजं फलम् ॥ ४३ ॥ कृमियों के समूह से भरपूर गूलर के, बड़ के, पाकर के, कळंबर तथा पीपल के फलों को नहीं खाना चाहिए । भूख से पेट खाली हो और दूसरा कुछ खाने को न मिलता हो, तब भी उत्तम पुरुष गूलर आदि पाँचों प्रकार के प्रभक्ष्य फलों को नहीं खाते । अनन्तकाय-परित्याग
आर्द्रः कंदः समग्रोऽपि सर्वः किशलयोऽपि च । स्नुही लवण-वृक्षत्वक् कुमारी गिरिकणिका ॥ ४४ ।। शतावरी विरूढानि गुडूची कोमलाम्लिका । पल्ल्यंकोऽमृतवल्ली च वल्लः शूकरसंज्ञितः ॥ ४५ ॥ अनंतकायाः सूत्रोक्ता अपरेऽपि कृपापरैः ।।
मिथ्यादृशामविज्ञाता वर्जनीयाः प्रयत्नतः ॥ ४६ ।। सब प्रकार के हरे-बिना सूखे कंदमूल, सब प्रकार की ऊगती हुई कोंपलें, स्नुही -- थोर, लवण वृक्ष की छाल, कुमारपाठा, गिरिकणिका, शतावरी, द्विदल वाला अंकुर, फूटा हुमा धान्य, गिलोय, कोमल इमली, पल्ल्यंक-पालक, अमृत बेल, शूकर नामक वनस्पति की बालें, ये सभी मार्य देश में प्रसिद्ध हैं। जीव-दया में तत्पर मनुष्यों को दूसरे म्लेच्छ देशों में भी प्रसिद्ध सूत्रोक्त अनन्तकायों का त्याग करना चाहिए । इन
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