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________________ योग-शास्त्र भक्षयन् - माक्षिक क्षुद्र - जंतु-लक्षक्षयोद्भवं । स्तोकजंतुनिहंतृभ्यः सौनिकेभ्योतिरिच्यते ।। ३७ ॥ लाखों जन्तुओं के विनाश से पैदा होने वाले शहद को खाने वाला थोड़े जीवों को मारने वाले कसाइयों से भी आगे बढ़ जाता है। एकैक - कुसुमकोड़ाद्रसमापीय मक्षिकाः । यद्वमंति मधूच्छिष्टं तदश्नति न धार्मिकाः ॥ ३८ ॥ अप्यौषधकृते जग्धं मधु श्वभ्रनिबंधनम् । भक्षितः प्राणनाशाय कालकूट-कणोऽपि हि ॥ ३९ ॥ मधुनोऽपि हि माधुर्यमबोधैरहहोच्यते । प्रासाद्यंते यदास्वादाच्चिरं नरकवेदनाः ॥ ४० ॥ . मक्खी एक पुष्प से रस पीकर दूसरी जगह उसका वमन करती है-उससे मधु उत्पन्न होता है। ऐसा उच्छिष्ट मधु धार्मिक पुरुष नहीं खाते । कितने ही मनुष्य मधु का त्याग करते हैं, पर औषधि में मधु खाते हैं। किन्तु, औषधि के लिए खाया हुआ मधु भी नरक का कारण है । क्योंकि, कालकूट जहर का एक कण भी प्राण नाश के लिए पर्याप्त होता है। टिप्पण-कितने ही अज्ञानी जीव कहते हैं कि मधु में मिठास होती है, पर जिसका आस्वादन करने पर बहुत काल तक नरक की वेदना भोगनी पड़े, उस मिठास को तात्विक मिठास कैसे कह सकते हैं ? जिसका परिणाम दुखदायी हो, ऐसी मिठास को मिठास नहीं कह सकते । इसलिए विवेकवान् पूरुष को मधु का त्याग करना चाहिए। मक्षिकामुखनिष्ठ्यूतं जंतुघातोद्भवं मधु । अहो पवित्रं मन्वाना देवस्थाने प्रयुजते ॥ ४१ ।। बड़े आश्चर्य की बात है कि कई लोग अनेक जन्तुओं के नाश से उत्पन्न मधु को पवित्र मानकर देव-स्थान-मंदिर में चढ़ाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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