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________________ ७८ योग-शास्त्र को नहीं जानता पर स्लमल-भक्षी होने के कारण दूसरे को उसका त्याग करने के लिये उपदेश भी नहीं दे सकता। मांस-भक्षक की प्रज्ञानता केचिन्मांसं महामोहादश्नंति न परं स्वयं । देव-पित्रतिथिभ्योपि कल्पयंति यदूचरे ॥ ३० ॥ बहुत से मनुष्य स्वयं तो मांस खाते ही हैं किन्तु अज्ञानता वश देव, . पितृ और अतिथियों के लिये भी मांस परोसते हैं । उनका कथन हैमनु का कथन क्रीत्वा स्वयं वाऽप्युत्याद्य परोपहृतमेव वा । देवान् पितृन् समभ्यर्च्य खादन् मांसं न दुष्यति ॥ ३१ ।। कसाई की दुकान के अतिरिक्त कहीं से भी खरीदकर लाया हुप्रा, स्वयं उत्पन्न किया हुआ अथवा दूसरों के द्वारा दिया हुआ या माँग कर लाया हुआ मांस देव व पितरों की पूजा करके खाने पर दोष नहीं लगता । टिप्पण-जब मनुष्य के लिए मांस खाना अनुचित है, तब देवों के लिये वह किस तरह उचित हो सकता है ? और मल-मूत्र से भरा हुआ दुर्गन्ध युक्त मांस खाने वाले देवता, मनुष्य की अपेक्षा भी कितने प्रधम कहलायेंगे तथा ऐसे देव मनुष्यों की किस प्रकार सहायता कर सकते हैं ? यह विचारने योग्य बात है। _____ मंत्र से संस्कृत किया हुआ मांस खाने में कोई दोष नहीं है, ऐसा कहने वालों को आचार्य श्री उत्तर देते हैं : मन्त्र-संस्कृतमप्यद्याद्यवाल्पमपि नो पलम् । भवेज्जीवितनाशाय हालाहललवोऽपि हि ।। ३२ ।। मंत्र से संस्कृत किया हुआ मांस भी एक जी के दाने जितना भी नहीं खाना चाहिए। क्योंकि, लेशमात्र भी जहर जैसे जीवन का नाश कर देता है, उसी प्रकार थोड़ा-सा मांस भी दुर्गति प्रदान करने वाला है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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