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________________ तृतीय प्रकाश ७७ मांस-भक्षरण का प्रतीक मांसाशने न दोषोऽस्तीत्युच्यते यैर्दुरात्मभिः । व्याध-गृध्र-वृक-व्याघ्र शृगालास्तैर्गुरू कृताः ॥ २५ ॥ जो दुर्जन, 'मांस खाने में दोष नहीं' ऐसा कहते हैं, उन्होंने शिकारी, गिद्ध, भेड़िया, बाघ, सियार आदि को अपना गुरु बनाया है, क्योंकि पापी लोग इनको मांस-भक्षण करते हुए देखकर ही मांस खाना सीखते हैं । 'मांस' शब्द की व्याख्या मांस भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसभिहाभ्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वे निरुक्तं मनुरब्रवीत् ।। २६ ।। मनु ने मांस शब्द की ऐसी व्याख्या की है कि 'जिसका मांस मैं यहाँ खाता हूँ, वह मुझे परभव में खाएगा।' मांस-भक्षण से दोष-वृद्धि मांसास्वादन-लुब्धस्य देहिनं देहिनं प्रति । हंतु प्रवर्त्तते बुद्धिः शाकिन्या इव दुधियः ।। २७ ।। मांस खाने वाले मनुष्य की, शाकिनी की तरह प्रत्येक प्राणी का हनन करने की दुर्बुद्धि बनी रहती है। . ये भक्षयंति पिशितं दिव्य-भोज्येषु सत्स्वपि । सुधारसं परित्यज्य भुञ्जते ते हलाहलं ॥ २८ ॥ जो मनुष्य दिव्य और सुन्दर भोजन विद्यमान रहते हुए भी मांसभक्षण करते हैं, वे अमृत रस का त्याग करके जहर का पान करते हैं। नं धर्मो निर्दयस्यास्ति पलादस्य कुतो दया । . . पललुब्धो न तद्वत्ति विद्याद्वोपदिशेन्न हि ॥ २६ ।। निर्दयी मनुष्य में धर्म नहीं होता तथा मांस भक्षण करने वाले के हृदय में दया नहीं होती। मांस में लोलुप हो जाने वाला व्यक्ति दया-धर्म . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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