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द्वितीय प्रकाश
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त्याग-व्रत को ग्रहण करने वाला दूसरों की विवाहित स्त्रियों का ही त्याग करता है।
गृहस्थ के व्रतों के लिए, साधुओं के महाव्रतों की तरह, एक निश्चित रूप नहीं है । श्रावक अपनी योग्यता के अनुसार त्याग करता है। अतः उसके त्याग में विविधता है। तथापि चतुर्थ अणुव्रत का ठोकठीक प्रयोजन तभी सिद्ध होता है, जब कि वह स्वदार-सन्तोषी बन कर परस्त्री-गमन का परित्याग कर दे। ऐसा करने पर ही उसकी वासना सीमित हो सकती है। परन्तु जिसका हृदय इतना दुर्बल है कि परस्त्रीमात्र का त्याग नहीं कर सकता, उन्हें भी कम से कम, पर-विवाहिता स्त्री से सम्पर्क करने का त्याग तो करना ही चाहिए । इसी दृष्टिकोण से यहाँ चतुर्थ अणुव्रत के दो रूप बताए गए हैं। मैथुन-निन्दा .
रम्यमापातमात्रे यत्, परिणामेऽतिदारुणम् ।
किंपाकफलसंकाशं, तत्कः सेवेत मैथुनम् ॥७७।। मैथुन प्रारम्भ में तो रमणीय मालूम पड़ता है, किन्तु परिणाम में अत्यन्त भयान: है ! वह किंपाक फल के समान है। जैसे किंपाक फल सुन्दर दिखलाई देता है, किन्तु उसके खाने से मृत्यु हो जाती है, उसी प्रकार मैथुन-सेवन ऊपर-ऊपर से रमणीय लगने पर भी आत्मा की घात करने वाला है । कौन विवेकवान् पुरुष ऐसे मैथुन का सेवन करेगा? · · टिप्पण-साधारणतया स्त्री और पुरुष का जोड़ा 'मिथुन' कहलाता है। उनकी रति-चेष्टा को 'मैथुन' कहते हैं। किन्तु 'मैथुन' शब्द का वास्तविक अर्थ इतना संकीर्ण नहीं है । वासना को उत्तेजित करने वाली
कोई भी काम-राग जनित चेष्टा 'मैथुन' ही कहलाती है, चाहे वह .चेष्टा स्त्री-पुरुष के साथ हो, स्त्री-स्त्री के साथ हो, पुरुष-पुरुष के साथ
हो या मनुष्य एवं पशु के साथ की जा रही हो ।
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