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________________ योग-शास्त्र दूसरे के सर्वस्व का अपहरण करने का प्रयत्न करना तो दूर रहा, .. स्वामी के बिना दिए एक तिनका भी ग्रहण करना उचित नहीं है। प्रचौर्य का फल परार्थग्रहणे येषां नियमः शुद्धचेतसाम् । अभ्यायान्ति श्रियस्तेषां स्वयमेव स्वयंवराः ।।७४।। अनर्था दूरतो यान्ति साधुवादः प्रवर्तते । स्वर्ग सौख्यानि ढौकन्ते स्फुटमस्तेयचारिणाम् ।।७।। शुद्ध चित्त से युक्त निन पुरुषों ने पराये धन को ग्रहण करने का त्याग कर दिया है, उनके सामने स्वयं लक्ष्मी, स्वयंवरा की भाँति चली आती हैं। उनके समस्त अनर्थ दूर हो जाते हैं। सर्वत्र उनकी प्रशंसा होती है और उन्हें स्वर्ग के सुख प्राप्त होते हैं । स्वदार-सन्तोष व्रत षण्ढत्वमिन्द्रियच्छेदं, वीक्ष्याब्रह्मफलं सुधीः । भवेत्स्वदारसन्तुष्टोऽन्यदारान् वा विवर्जयेत् ॥७६।। व्यभिचारी पुरुष परलोक में षण्ढ-नपुंसक होता है और इस लोक में इन्द्रिय-च्छेद आदि दुष्फल भोगता है। इस अनिष्ट फल को देखकर बुद्धिमान् पुरुष स्वदार-सन्तोषी बने अथवा परस्त्री-सेवन का त्याग करे । टिप्पण-श्रावक के ब्रह्मचर्य-व्रत के सम्बन्ध में कई प्रकार का परम्परा-भेद पाया जाता है । साधारणतया इस व्रत का स्वरूप यह है कि विधिपूर्वक अपनी विवाहित स्त्री के अतिरिक्त अन्य समस्त स्त्रियों के साथ गमन करने का त्याग किया जाए, किन्तु कुछ प्राचार्य इस व्रत के दो खंड करते हैं-१. स्वस्त्री-सन्तोष और, २. परस्त्रीत्याग । स्वस्त्री-सन्तोष व्रत का परिपालक श्रावक अपनी पत्नी के अतिरिक्त समस्त स्त्रियों के साथ गमन करने का त्याग करता है, किन्तु परस्त्री Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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