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________________ द्वितीय प्रकाश ५१ ग्रहण करना 'अदत्तादान' है । अदत्तादान का त्याग महाव्रत भी है और व्रत भी है। घास का तिनका, रास्ते का कंकर और धूल भी बिना दिए ग्रहण न करना - प्रदत्तादान - विरमण महाव्रत है । इसका पालन मुनिजन ही करते हैं । श्रावकों के लिए स्थूल अदत्तादान के त्याग का विधान है। जिस अदत्तादान — चोरी को करने से व्यक्ति लोक में 'चोर' कहलाता है, जिसके कारण राजदण्ड मिलता है और लोकनिन्दा होती है, वह स्थूल प्रदत्तादान कहलाता है। श्रावक के लिए ऐसा अदत्तादान अवश्य ही त्याज्य है । श्रदत्तादान का परिहार पतितंविस्मृतं नष्टं स्थितं स्थापितमाहितम् । , प्रदत्तं नाददीत स्वं, परकीयं क्वचित् सुधीः ॥६६॥ किसी की कोई वस्तु सवारी आदि से गिर पड़ी हो, कोई कहीं रखकर भूल गया हो, गुम हो गई हो, स्वामी के पास रखी हो, तो उसे उसकी अनुमति के बिना बुद्धिमान् पुरुष, किसी भी परिस्थिति में - कैसा भी संकट क्यों न श्री पड़ा हो, उसे ग्रहण न करे । चौर्यकर्म की निन्दा Jain Education International अयं लोकः परलोको, धर्मो धैर्य धृतिर्मतिः । मुष्णता परकीयं स्वं मुषितं सर्वमप्यदः || ६७।। , जो पराये धन का अपहरण करता है, वह अपने इस लोक को, परलोक को, धर्म को, धैर्य को, स्वास्थ्य को और हिताहित के विवेक को हरण करता है । दूसरे के धन को चुराने से इस लोक में निन्दा होती है, परलोक में दुःख का संवेदन पड़ता हैं, धर्म एवं धीरज का और सन्मत्ति का नाश हो जाता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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