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________________ पर - पीड़ाकारी वचन द्वितीय प्रकाश न सत्यमपि भाषेत, पर- पीडाकरं वचः । लोकेऽपि श्रूयते यस्मात् कौशिको नरकं गतः ॥ ६१॥ जो वचन लोक में भले ही सत्य कहलाता हो, किन्तु दूसरे को पीड़ा उत्पन्न करने वाला हो, वह भी नहीं बोलना चाहिए । लोक में भी सुना जाता है कि ऐसा वचन बोलने से कौशिक नरक में गया । टिप्पण — कौशिक नामक एक तापस अपने श्राश्रम में रहता था । एक बार कुछ चोर उसके श्राश्रम के समीप वन में छिप गए। कौशिक सन्यासी ने उन्हें वन में प्रवेश करते देखा था। चोरों ने जिस गाँव में चोरी की थी, वहाँ के लोग तापस के पास श्राये । उन्होंने श्राकर पूछामहात्मन् ! आपको ज्ञात है कि चोर किस ओर गए हैं ? धर्मतत्त्व से अनभिज्ञ तापस ने चोरों को बतला दिया । तापस के कहने पर शस्त्रसज्जित ग्रामीणजनों ने वहाँ पहुँच कर चोरों को मार डाला । अल्प असत्य भी त्याज्य ૪૨ इस प्रकार जो वचन तथ्य होने पर भी पीड़ाकारी हो, वह भी असत्य में ही परिगणित है । कौशिक तापस ऐसे वचन बोलकर भायु पूर्ण होने पर नरक में उत्पन्न हुआ । अल्पादपि मृषावादाद्रौरवादिषु संभवः । अन्यथा वदतां जैनीं वाचं त्वहह का गतिः ? ॥६२॥ Jain Education International लोक सम्बन्धी अल्प असत्य बोलने से भी रौरव एवं महारौरव श्रादि नरकों में उत्पत्ति होती है, तो जिनवाणी को अन्यथा रूप में बोलने वालों की, क्या गति होगी ? उन्हें तो नरक से भी अधिक प्रधम गति प्राप्त होती है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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