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योग-शास्त्र
सम्यक्त
सम्यक्त्व के पाँच भूषण
स्थैर्य प्रभावना भक्तिः, कौशलं जिन-शासने ।
तीर्थ-सेवा च पञ्चास्य, भूषणानि प्रचक्षते ॥१६॥ सम्यक्त्व के पाँच भूषण कहे गये हैं-१. जिन-शासन में स्थिरता, २. जिन-शासन की प्रभावना, ३. जिन-शासन की भक्ति, ४. जिनशासन में कौशल, और ५. चतुर्विध तीर्थ-साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका की सेवा। इन पाँच सद्गुणों से सम्यक्त्व भूषित होता है। सम्यक्त्व के पाँच दूषण
शङ्काकाङक्षाविचिकित्सा-मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् ।
तत्पस्तवश्च पञ्चापि, सम्यक्त्वं दूषयन्त्यलम् ।।१७।। यह पाँच दोष सम्यक्त्व को मलीन करते हैं—१. शंका, २. कांक्षा, ३. विचिकित्सा, ४. मिथ्यादृष्टि-प्रशंसा, और ५. मिथ्यादृष्टि-संस्तव । इनका अर्थ इस प्रकार है१. वीतराग के वचन में सन्देह करना 'शंका दोष' है। शंका दो
प्रकार की है-सर्व-विषय और. देश-विषय । 'धर्म है या नहीं ?' इस प्रकार की शंका को 'सर्व-विषय' शंका कहते हैं। किसी वस्तु-विशेष के किसी विशेष धर्म में संशय होना 'देश-विषय' शंका है, जैसे-आत्मा है, किन्तु वह सर्वव्यापी
है, अणुपरिमाण है या देहपरिमाण ? २. अन्य दर्शनों को स्वीकार करने की इच्छा होना 'कांक्षा दोष' ' कहलाता है । इसके भी शंका की तरह दो भेद हैं। ३. धर्म के फल में अविश्वास करना 'विचिकित्सा' है। मुनियों
के मलीन तन को देखकर घृणा करना भी विचिकित्सा है। ४. मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करना 'मिथ्यादृष्टि-प्रशंसा' दोष
कहलाता है।
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