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________________ योग-शास्त्र नहीं होता। उसके मन में, उसकी बुद्धि में सदा-सर्वदा सन्देह बना रहता है। वह निश्चित विश्वास और एक निष्ठा के साथ अपने पथ पर बढ़ नहीं पाता। यही कारण है कि वह इतस्ततः भटक जाता है, ठोकरें खाता फिरता है और पतन के महागर्त में भी जा गिरता है। उसकी शक्तियों का प्रकाश भी धूमिल पड़ जाता है। अतः अनन्त शक्तियों को अनावृत्त करने, आत्म-ज्योति को ज्योतित करने तथा अपने लक्ष्य एवं साध्य तक पहुँचने के लिए मन, वचन और कर्म में एकरूपता, एकाग्रता, तन्मयता एवं स्थिरता लाना आवश्यक है। आत्म-चिन्तन में एकाग्रता एवं स्थिरता लाने का नाम ही 'योग' है।' आत्म-विकास के लिए योग एक प्रमुख साधना है। भारतीय संस्कृति के समस्त विचारकों, तत्त्व-चिन्तकों एवं मननशील ऋषि-मुनियों ने योग-साधना के महत्व को स्वीकार किया है। योग के सभी पहलुओं पर गहराई से सोचा-विचारा है, चिन्तन-मनन किया है। प्रस्तुत में हम भी इस बात पर प्रकाश डालना आवश्यक समझते हैं कि योग का वास्तविक अर्थ क्या रहा है ? योग-साधना एवं उसकी परंपरा क्या है ? योग के सम्बन्ध में भारतीय विचारक क्या सोचते हैं ? और उनका कैसा योगदान रहा है ? 'योग' का अर्थ _ 'योग' शब्द 'युज्' धातु और 'घन' प्रत्यय से बना है। संस्कृत व्याकरण में 'युज्' धातु दो हैं। एक का अर्थ है-जोड़ना, संयोजित करना ।२ और दूसरे का अर्थ है-समाधि, मनःस्थिरता । ३ भारतीय 1. The word 'Yoga' literally means 'Union'. -Indian Philosophy', (Dr. C. D. Sharma) २. युजपी योगे, गण ७, -हेमचन्द्र धातुपाठ । ३ युजिच समाधौ, गण ४, - हेमचन्द्र धातुपाठ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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