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योग शास्त्र
. [६६ मोक्ष--"चतुर्णामगुणीर्मोक्षः" अर्थात चारों पुरुषार्थों में मोक्षपुरुषार्थ प्रमुख है। मोक्ष-पुरुषार्थ, धर्म से भी ऊपर है। धर्म साधना का नाम है, तो मोक्ष-पुरुषार्थ सर्व साधना का । प्रत्येक व्यक्ति को जो दुःखों से छूटने की तड़प होती है, उसके फलस्वरूप व्यक्ति मोक्ष-पुरुषार्थ के लिए यत्न करता है । संसार के सुखों में तारतम्य है, अतः संसार के सुख तुच्छ हैं । प्रतियोगिता रहित मोक्ष का सुख समस्त मुक्त जीवों के लिए समान रूप से उपभोग्य होता है । अतः वही स्वीकार्य है।
योगः तस्य च कारणं-मोक्ष का कारण योग है । हेमचंद्रार्य योग को मोक्ष का कारण क्यों बताते हैं ? स्पष्ट है, कि वे केवल योगी को ही मोक्ष के योग्य समझते हैं । संसार में उलझा हुआ व्यक्ति योग की साधना कैसे कर सकता है ? श्री हेमचन्द्राचार्य ने यह भी स्पष्ट कह दिया, कि यह योग 'ज्ञानदर्शन चारित्र' रूप है। 'उमास्वाति जी ने भी "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः" कह कर मोक्ष का यही उपाय माना है।)
पूर्व में सम्यग्दर्शन होना चाहिए, क्योंकि तत्त्वार्थ की श्रद्धा न होगी तो ज्ञान प्राप्ति कौन करेगा ? 'सर्व प्रेमयं सत्त्वात्'-सभी कुछ प्रमेय (ज्ञेय) है । आत्मा भी ज्ञेय हे । वह श्रद्धा का विषय न बनेगी, तो उस का ज्ञान कैसे होगा ? आत्मा का ज्ञान न होगा, तो चारित्र आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न कैसे होगा ?
। सम्यग्दर्शन से मुक्ति होती है । श्रेणिक, कृष्ण, रावण, वज्रबाहु आदि सम्यग्दर्शन के कारण ही मुक्ति की ओर अग्रसर हुए।
सम्यग्ज्ञान से मुक्ति होती है। गौतम गणधर आदि ज्ञान से ही मुक्त हुए। . . . सम्यक् चारित्र से मुक्ति होती है । कूरगड, माषतूष, अतिमुक्त आदि चारित्र से मुक्त हुए । । परन्तु एक से मुक्ति कभी नहीं होती । मोक्ष के प्रति तीनों
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