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________________ ६८] प्रथम प्रकाश मानव के जीवन का सार धर्म है । एक कवि ने कहा था । धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण । धर्म पंथ साधे बिना, नर तियंच समान || धर्म के बिना मनुष्य पशु से भी हीन बन जाता है । एक कवि के शब्दों म भजन बिन नर, कूकर - सूकर जैसो 1 धर्म मानव के जीवन का अंग बन जाना चाहिए। धर्म कभी कभी नहीं होना चाहिए, शौक से होना चाहिए, निरन्तर होना चाहिए | क्या धन कभी कभी अर्जित किया जाता है ? नहीं ! तो धर्म को मेहमानों की तरह जीवन गृह में कभी-कभी ही क्यों आने देते हो । धर्म तो महान् मंगल है | दुःख के समय सभी व्यक्ति धर्म तथा प्रभु स्मरण करते हैं, परन्तु सुख में धर्म करने वाले कितने हैं ? दुःख में सिमरण सब करें, सुख में करे न कोय । जो सुख में सिमरण करे, दुःख काहे को होय ॥ 1 जो मानव जीवन में, धर्म को निरन्तर स्थान देता है, उसे दुःख, विपत्तियां, रोग, शोक कभी नहीं आते । यदि आते भी हैं तो शीघ्र ही समाप्त हो जाते हैं । धर्म अमृत है, जिस के पाने से व्यक्ति अमर हो जाता है । धर्म गंगा है, जिस में निमज्जन तथा स्नान करके व्यक्ति पावन हो जाता है । धर्म जीवन की परम आवश्यकता है। धर्म के बिना मुमुक्षु व्यक्ति का जीवन ही भार-भूत हो जाता है । मोक्ष की अभिलाषा उस के मन को सदैव प्रमुदित रखती है । फिर वह पथ पर से विचलित नहीं होता, पथ से भ्रष्ट नहीं होता, पथ पर चलते हुए आने वाली बाधाओं का साहस से सामना करता है । इस प्रकार धर्म की कृपा से वह समस्त असफलताओं तथा बाधाओं को पार करता हुआ अन्तिम लक्ष्य तक पहुंच जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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