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योग शास्त्र
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है । कामी व्यक्ति को तो उन्होंने अद्भुत पशु पक्षी की उपमा
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दी है - यथा
दिवा पश्यतिनो धूकः, काकः नक्तं न पश्यति । अपूर्वो ऽसौ कामांध, दिवानक्तं न पश्यति ॥
उल्लू दिन में नहीं देखता, कौआ रात्रि में नहीं देखता, परन्तु कामान्ध व्यक्ति तो न दिन में देखता है, न रात्रि में । उस की दृष्टि पर आवरण आ जाता है । जैसे बिल्ली मात्र दूध को ही देखती है, डंडे को नहीं देखती । उसी प्रकार से कामान्ध व्यक्ति मात्र भोग को ही देखता हैं, उस के परिणाम को नहीं ।
गृहस्थ अर्थ तथा काम - पुरुषार्थ को उतना ही महत्व देना चाहिए, जिस से उस का धर्म-पुरुषार्थ, अबाध एवं गतिशील हो सके । काम तथा अर्थ, धर्म के बाधक नहीं बनने चाहिएं । जब मानव-धर्म कार्य भी सीमित रूप से करता है, तो अर्थ तथा काम- पुरुषार्थ में अधिक रुचि क्यों लेता है ? कारण स्पष्ट है, कि मानव की वृत्ति कामादि में अधिक है, जिसका कारण हैअनादि कालीन संस्कार । इन संस्कारों को समाप्त करने के लिए ही धर्म - पुरुषार्थ की आवश्यकता है ।
धर्म : - धर्म मानव कल्याण के लिए अत्यधिक उपयोगी है । धर्म के द्वारा मानव को आत्म-शांति की प्राप्ति होती है । धर्माराधन से मानव क्रमशः मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है । धर्म मानव के जीवन की शुद्धि के लिए है । जीवन में जो पाप निरन्तर रूप से होते रहते हैं, उन पापों का परिमार्जन धर्म के द्वारा होता है । धर्म आत्मा का आदिम स्वभाव है, जिसे मानव भूला हुआ है । धर्म मानव की प्रथम आवश्यकता है, जिसे मानव
अन्तिम आवश्यकता मान लिया है । मानव समस्त कार्यों के लिए समय निकाल सकता है, मात्र धर्म के लिए नहीं । धर्म को उस ने 'खाली समय' के लिए रखा हुआ है ।
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