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प्रथम प्रकाश एक बार एक व्यक्ति ने एक योगी से पूछा, कि काम सेवन कितनी बार करना चाहिए ? योगी ने उत्तर दिया, कि करना ही पड़े, तो जीवन में एक बार करना चाहिए। उस ने पूछा, कि यदि इतने से सन्तोष न हो तो? योगी ने उत्तर दिया, "सिंह की तरह वर्ष में एक बार करना चाहिए।
"यदि इतने से भी सन्तोष न हो तो?" उस ने अधीर हो कर पूछा।
योगी ने उत्तर दिया, "मास में एक बार ।" . . "यदि इतने से भी सन्तोष न हो तो...." उस ने पुनः पूछा। "सप्ताह में एक बार ।" योगी ने कहा।
"यदि इतने से भी सन्तुष्टि न हो, तो......" _ "तो दिन में एक बार, परन्तु प्रतिक्षण कफन को ओढ़ कर ही यह कार्य करना चाहिए।" योगी ने ठंडे दिल से उत्तर दिया।
यह एक कल्पना नहीं, यथार्थ है । सन्त तुलसी दास ने भी ठीक ही कहा है
कार्तिक मास के कूतरे, तजे अन्न और प्यास । तुलसी उन की क्या गति, जिन के बारह मास ॥ एक कवि ने कहा था
भिख न देखे, जूठे भात । नींद न देखे, टूटी खाट ।
काम न देखे, जात कुजात ॥ काम के पीछे भागने वालों को वय तथा जाति से कोई । प्रयोजन नहीं होता। वह तो स्त्री में मात्र स्त्रीत्व ही देखता है।
चार्वाक मतानुयायी तथा काममार्गी भारतवर्ष में रह कर भी 'काम संस्कृति' का प्रचार करते रहे । उन के अनुसार कुछ भी अभोग्य नहीं था । उन की काम लीलाएं सीमा से रहित थीं। परन्तु भारतीय महर्षियों ने तो सदा संयम का ही गुणगान किया
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