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योग शास्त्र
[६५ समझना चाहिए, कि धनोपार्जन के समय किए गए पाप का व्याज चुका दिया है, पाप का फल तो शेष है ।
धन की उपयोगिता क्या है ? क्या यह धन रोग, शोक अथवा मृत्यु से बचा पाता है ? धन से दवाई खरीदो जा सकती है, आरोग्य नहीं । धन से रिश्तेदार खरीदे जा सकते हैं, प्रेम नहीं । धन के द्वारा भय से सुरक्षा हो सकती है। मृत्यु से नहीं। धन के द्वारा भौतिक सामग्री प्राप्त हो सकती है, सुख नहीं । अतः धन को आवश्यक पदार्थों तक ही सीमित रख कर सन्तोष से जीवनयापन करना चाहिए।
काम --काम भी एक पुरुषार्थ है, जो इस गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने के लिए आवश्यक गिना जाता है । परन्तु यह 'काम' मानव की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता वह होती है, जिस के बिना व्यक्ति जी न सके । क्या काम-सेवन के बिना व्यक्ति जी नहीं सकता? वस्तु स्थिति तो यह है, कि ब्रह्मचारी तथा संयमी पुरुष अधिक नीरोग होते हैं, उन का शरीर सौष्ठव भी भोगी व्यक्ति से श्रेष्ठ होता है तथा मस्तिष्क (mind) ताज़ा होता है। .
(काम सेवन से अनेक रोगों का सामना करना पड़ता है। व्यक्ति अशक्त हो जाता है। महर्षि विवेकानन्द. ते अपने ब्रह्मचर्य के बल से चलती हुई घोड़ा गाड़ी को भी रोक दिया था। ब्रह्मचर्य के कारण ही आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज की आंखों में ज्योति पुनः लौट आई थी।).. ... काम-पुरुषार्थ भी गृहस्थ के लिए 'स्व स्त्री सन्तोष व्रत' के रूप में ही होना चाहिए। समाज ने गृहस्थ के लिए काम की एक सीमा बांधी है। यदि काम को ही सर्वस्व समझ लिया जाए तो सर्वस्व नष्ट हो जाता है । धनार्जन की भी एक मर्यादा है । काम सेवन की भी एक मर्यादा है।
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