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प्रथम प्रकाश महत्त्व दे दिया गया। एक पूंजीपति जब अपना धन बढ़ाता रहता है, तो पार्श्वस्थ कोई भी व्यक्ति उसकी लालसा को देख कर स्वयं भी वैसा बनने का प्रयत्न करता है । वह उस श्रेष्ठी को सम्पन्नता, वैभव, मोटर गाड़ी, बंगला, सामान को देखता है, तो स्वयं भी वह सब प्राप्त करने के लिए बेचैन हो उठता है। इस प्रकार वह भी न्याय, अन्याय या किसी भी उपाय से सम्पन्न होना प्रारम्भ कर देता है । धन फिर आवश्यकता पूर्ति के लिए नहीं, इच्छा पूर्ति के लिए साधन बन जाता है।
धन की भी एक गर्मी होती है। ज्ञान की भी एक गर्मी होती है। जिस की जेब गर्म होती है, उस का स्वभाव अन्यथा रूप हो जाता है । वह फिर किसी को कुछ समझता नहीं। मद-गर्वित होकर वह आंखें ऊपर को उठा कर, छाती को तान कर, अकड़ कर चलता नज़र आता है । धनवान् होना भी मानो अपराध है। धन से अनेक दुर्गुण प्राप्त होते हैं । स्थिति तब और भी गंभीर हो जाती है, जब इस धन का दुरुपयोग होता है ।
धन के सदुपयोग से स्वर्ग मिलता है, तो धन के दुरुपयोग से नरक । धन का दुरुपयोग मानव को पतन की किसी भी सीमा तक ले जा सकता है।
अन्ततः अधिक धन किस काम आएगा ? क्या मात्र संग्रह करने से धनी लोग संतुष्ट हो जाते हैं ? संग्रह करने में ही संतुष्ट रहने वाले लोग इस दुनिया में हैं। मम्मण सेठ ने मात्र धन का संग्रह ही तो किया था, परन्तु वह उस धन का उपभोग नहीं कर सका।
धन का दुरुपयोग कुसंगति, सिनेमा, व्यसन, नशा आदि में होता है। एक पैसा भी १८ पाप स्थानों के सेवन से प्राप्त होता है । पाप से उपार्जित पैसा पाप में लग जाए, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य कोई नहीं हो सकता। धन यदि पुण्य कार्य में लग जाए तो
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