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योग शास्त्र
1६३ चतुवर्गेऽगुणीर्मोक्षो, योगस्तस्य च कारणम् ।
ज्ञानश्रद्धानचारित्र-रूपं, रत्नत्रयं च सः ॥१५॥ अर्थात-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष रूपी चार पुरुषार्थों में मोक्ष सर्वोत्तम पुरुषार्थ है। उस मोक्ष का कारण 'योग' है । योग की परिभाषा है, "सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्चारित्र ।" ।
विवेचन-अर्थ तथा काम ये दोनों पुरुषार्थ मानव के लिए दुर्लभ नहीं हैं, क्योंकि ये दोनों पुरुषार्थ प्रत्येक प्राणी को जन्म जन्मांतर से मिल रहे हैं । जब कभी बहुत पुण्य का उदय होता है, तो धर्म नाम के पुरुषार्थ के लिए मानव प्रयत होता है। धर्म नाम के पुरुषार्थ के द्वारा ही अर्थ तथा काम की प्राप्ति होती है तथा क्रमशः मोक्ष की भी प्राप्ति होती है ।
. आगे चल कर कहा है, कि धर्म से अर्थ की प्राप्ति होती है तथा अर्थ से काम की । परन्तु अर्थ तथा काम की मानव जीवन में ईषद् मात्र भी उपयोगिता नहीं है। पूर्वभवों में इस आत्मा को अर्थ तथा काम के अक्षय भण्डार प्राप्त हुए, परन्तु उसे इनसे तृप्ति नहीं हुई । अर्थ का कहीं अन्त नहीं है । सन्तोष ही इस अर्थ का अन्त है । धन अर्जन रूप पुरुषार्थ से क्या कोई सिद्धि हो पाती है ?
अर्थ-अर्थ आवश्यक है, जीवन निर्वाह के लिए । परन्तु जब यही अर्थ जीवन का साध्य बन जाता है, तो व्यक्ति स्वय को भूल जाता है। __वर्तमान में मानव का जीवन अर्थ-प्रधान हो गया है । अर्थ ही जीवन का सर्वस्व बन चुका है। 'सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते' समस्त गुण धन को ही आश्रित हैं । धन से ही प्रतिष्ठा मिलती है, धन से ही व्यक्ति को पूज्य गिना जाता है । धन ही जीवन के प्रत्येक पथ का लक्ष्य-बिन्दु है।
यह एक सामाजिक विडंबना है, कि धन को कुछ अधिक ही
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