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प्रथम प्रकाश के कारण निरंतर प्रकाश मिलता रहता है। इसी प्रकार परमात्म ज्योति (लो) के मिलन में भी सातत्य होता है । उस लौ में लौ के. मिल जाने पर जो आनन्द का अनुभव होता है, उसे योगी कदापि छोड़ना नहीं चाहता । वह उर्ध्वरेताः बन जाता है । उस की शक्तियां उर्ध्वगामिनी हो जाती हैं। वहां वह 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' की सम्यक् व्याख्या को समझ जाता है । क्योंकि वहां दो ज्योति (लौ ) में अभेद हो जाने से एक ही लौ शेष रह जाती है ।
इस प्रकार साधना का श्री गणेश काया की माया के अपगम से होता है तथा अन्त: मन के पूर्ण निरोध में समाप्त हो जाता है । इस मध्य कई पथ मिलते हैं । कई पथिक मिलते और बिछुड़ जाते हैं । कई गुरु तथा मार्ग दर्शक मिलते हैं । व्यक्ति आगे बढ़ता हुआ उनसे भी सम्बन्ध तोड़ देता है । अन्त में अनुभव ही उस का सब से बड़ा गुरु तथा पथ प्रमाणित होता है ।
इस योग के मार्ग में कई बाधाएं आती हैं । उन बाधाओं का दृढ़तापूर्वक सामना करना होता हैं । कभी काया की कुचेष्टाएं परेशान करती हैं, तो कभी वचन का मौन असह्य हो जाता है । कभी मन के विचार व्याकुल करते हैं, तो कभी परिस्थितियों की प्रतिकूलता मानस में सन्ताप को प्रादुर्भूत करती है । इन समस्त अवसरों पर सम रहना सीख लिया जाए, तो कुछ भी कठिन प्रतीत नहीं होगा ।
जो योगी 'योग' को पूर्णतः नहीं साध पाते अथवा किसी कर्म के उदय से योग भ्रष्ट हो जाते हैं, उन्हें अगले जन्मों में योग के साधन प्राप्त हो जाते हैं । सात्यकी को सात जन्मों की साधना के पश्चात् रोहिणी आदि विद्याएं सिद्ध हुईं थीं । जन्म जन्मान्तर की की साधना से 'योग साधना' में विशुद्धि होती है तथा योग के द्वारा क्रमशः मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है ।
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