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योग शास्त्र
था । केवल ज्ञान के पश्चात् गोशालक के द्वारा तेजोलेश्या छोड़े जाने पर भी भगवान महावीर ने स्वरक्षा के लिए शीतलेश्या का प्रयोग नहीं किया ।
योगी अपनी शक्तियों का प्रयोग करेगा भी क्यों ? उसे तो परमात्त्मा के सहज स्वरूप का ध्यान करते हुए ऐसे अनन्य आनंद की अनुभूति होती है, कि वह उस आनन्द का कथन भी नहीं कर सकता । जैसे मूक प्राणी गुड़ को खा कर उस वर्णन नहीं कर सकता, तथैव उस अनिर्वचनीय नहीं, अनुभव ही हो सकता है ।
के मधुर स्वाद का आनन्द का वर्णन
इस ध्यान योग में वह योगी परमात्मा के साथ तदाकार, तद्रूप, तदात्म हो जाता है। उसके लिए एक मात्र आत्मा या परमात्मा का अस्तित्व ही शेष रहता है । वह संसार को तो स्मृतिशेष कर ही देता है, आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को भी परमात्मा के साथ जुड़ता हुआ अनुभव करता है । तब वेदान्त का " एकमेव द्वितीयं नास्ति" सूत्र चरितार्थ हो जाता है । मानो परमात्मा के साथ आत्मा का मिश्रित स्वरूप ही 'एक' तथा अनन्य होता है, वहां शेष तदन्य कुछ भी नहीं होता। वहां 'तत्त्वमर्सि' का भान होता है । जो वह (परमात्मा) है, वही तू ( आत्मा ) है । इस स्वरूप से आत्मा उस से भिन्न नहीं हैं ।
योगी वहां पर परमात्मा की ज्योति से स्वयं की ज्योति (लो) को मिला देता है तथा इस प्रकार उस परम आत्मा को आत्मसात् कर लेता । जैसे भिन्न-भिन्न प्रकाश मिल जाने से वे प्रकाश 'एक' ही प्रतीत होते हैं, तथैव दोनों प्रकाश - ज्योति ( लौ ) एक ही प्रतीत होते हैं ।
दीपक की लौ प्रतिक्षण भिन्न-भिन्न होती हुई भी एक ही प्रतीत होती है, क्योंकि उस में एक शृंखला होती है, सातत्य होता है | सातत्य में क्षणमात्र की भी बाधा ( व्यवधान) न होने
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