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प्रथम प्रकाश उठी। परन्तु वह तो प्रेमी के प्रेम में प्रेमांध होकर चली जा रही थी। उसी ध्यान में वह बादशाह को देख न सकी थी, अतः उसका कोई दोष भी न था। वह बोली, "जहाँपनाह! क्या आप नमाज पढ़ रहे हो ? नमाज क्या ऐसे पढ़ी जाती है ? मैं तो प्रेमी के प्रेम में भागी जा रही थी, अतः आपको देख न सकी, परन्तु आप तो प्रभु में दत्तचित्त हो रहे थे, आपने मझे कैसे देख लिया ? प्रेमी के प्रेम में तो दूसरा पदार्थ दिखाई ही नहीं देता। आप तो परमपिता के प्रेम में तल्लीन थे । आपको दूसरा व्यक्ति कैसे दिखाई दिया ?
बादशाह को अपनी गलती का अनुभव हुआ । सन्त बुल्लेशाह ने पंजाबी में कहा है
बुल्लेशाह ! मन का क्या लगाना ?
इधर से हटाना, इधर को लगाना। मन को प्रभु भक्ति में लगाने का यही तरीका है, कि मन को संसार से हटा कर प्रभु में जोड़ दो। मात्र दृष्टि को इधर से हटा कर उधर को लगा दो। भौतिकवाद, शरीरवाद, शृगारवाद तथा जगद्वाद में लगा हआ मन आत्मवाद या त्यागवाद में कैसे लग सकता है ? अतःएव भगवान महावीर ने कहा है, कि बाह्य त्याग के द्वारा शनैः शनैः व्यक्ति आभ्यतन्र त्याग (सर्व सन्यास) की ओर प्रवृत्त होता है। अतः बाह्य त्याग, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान आदि 'योग' का प्रथम अंग हैं।
यह पहले ही कहा जा चुका है, कि योगी 'योग निरोध' से अनेक प्रकार की बाह्य एवं आभ्यन्तर शक्तियों तथा लब्धियों को प्राप्त करता है। परन्तु उसे उन लब्धियों से कोई प्रयोजन नहीं होता। वह किसी विशेष समय के अतिरिक्त कभी भी अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं करता। भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्ष के साधना काल में एक बार ही गोशाले तापस को तेजोलेश्या से दग्ध होते हुए देख कर 'शीतलेश्या' का प्रयोग किया
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