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________________ प्रथम प्रकाश . वस्तुतः सामान्य अवस्था में प्रत्येक मानव शांत ही होता है। जब तदनुरूप वातावरण मिलने के पश्चात् स्वार्थ सिद्धि के न होने । की दशा में सत्ता में पड़े हुए मोह, राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह, लोभादि जागृत हो जाते हैं, तब योग की पढ़ी पढ़ाई, सुनी सुनाई सभी परिभाषाएं व्यर्थ हो जाती हैं । यही तो कर्म चक्र है । इसी को तो दूर करना है। अतःएव श्री हेमचन्द्राचार्य, योग शास्त्र की टीका में कहते हैं कि "आत्मानं साध्येन सह युज्यते इति योगः", अर्थात् जो क्रिया (ज्ञान, तप अथवा साधना) प्राणी को आत्मा के स्वरूप के साथ । जोड़ दे, वही योग है। उपर्युक्त तीनों अवस्थाएं जीव को अपने सहज स्वरूप के साथ जोड़ती हैं। अगले. श्लोक में योग की परिभाषा में भी इसी कारण से ज्ञान दर्शन तथा चारित्र को परिगणित किया गया है। दर्शन तथा ज्ञान की प्राथमिक भूमिका के पश्चात् उपर्युक्त त्रिविध चारित्र ही साधु को 'योगी' बनाता है। (इस का विवेचन अगले श्लोक के विवरण के अंत में देखें।) ___"पातञ्जल योग कार" महर्षि पातञ्जलि कहते हैं- "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" मन की प्रवृत्तियों को रोकने का नाम योग है। अशुभ प्रवृत्तियों के लिए शुभ प्रवृत्तियों की आवश्यकता है तथा योगी की कक्षा अत्यच्च हो जाने के पश्चात शभ को रोकना भी जब अनिवार्य हो जाता है, तो 'शुद्ध' की आवश्यकता होती है। यह शद्ध ही 'आत्म स्वरूप की सहज परिणति' है। प्रतिक्षण आत्मा का 'स्व स्वरूप' ही दृष्टि में हो, उसे 'सहज समाधि' कहते हैं । उसे निर्जरा तथा संवर कहते हैं । आचार्य हरिभद्र ने 'योगदृष्टि समुच्चय' में योग का यही लक्षण किया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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