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योग शास्त्र
[५५ ३. शुभ अथवा अशुभ-सम्पूर्ण विचार श्रेणी का विसर्जन । जैसे शव, मृत होने के पश्चात् पुनर्जीवित नहीं होता, तथैव मन भी एक प्रकार से 'मृत' ही हो जाता है । उस अवस्था में विचारों का प्रवाह रुद्ध हो जाता है । यह अवस्था यद्यपि केवली की अवस्था है, तथापि इस अवस्था का क्षणिक अनुभव योगी को भी होता है।
प्रथम अवस्था में योगी वैराग्य रस-सिक्त होकर भौतिकवाद तथा संसार के मोह से दूर हो जाता है। .. .।
द्वितीय अवस्था में वह इस प्रथम अवस्था के स्थिरीकरण के लिए, संयम, स्वाध्याय, ध्यान, चर्चा, क्रियादि में प्रवृत्त हो जाता है, जब कि तृतीय अवस्था में योगी इन दोनों अवस्थाओं के साथ ही समता तथा संतुलन का अभ्यास करता है । उसे फिर न तो शुभ पर या अच्छे पदार्थ पर राग रहता है, न अशुभ तथा वीभत्स पदार्थों पर द्वेष । शत्रु तथा मित्र पर, तण तथा स्त्रैण (स्त्री समूह) पर, कंचन तथा मत्तिका में 'सम' हो जाता है । इसी दशा को योगी की उत्कट दिन चर्या बताया गया है। ऐसा योगी सदैव सहज होता है । उस के जीवन में कृत्रिमता नहीं होती। वह बाह्य तथा आन्तरिक रूप से एक समान होता है। वह ध्यान-योगी बन कर मात्र ज्ञाता द्रष्टा बन जाता है, कोई भी कर्म करते हए वह उस में लिप्त न हो कर, उस में साक्षी भाव से रहता है, मात्र द्रष्टा बन
कर।
ऐसी अवस्था में न कुछ करना होता है तथा न ही कुछ छोडना होता है । करणीय स्वयं हो जाता है, त्याज्य स्वतः छट जाता है । जो करणीय है, करने योग्य ही है, वह तब क्यों न होगा? कोई कारण है ? जो त्याज्य है, छोड़ने योग्य है, वह क्यों न छूटेगा? कोई कारण है ? जब आसक्ति नहीं, मोह नहीं, सन्तुलन है, समता है, 'आत्मवत् सर्वभूतेषु, सदृश भाव है, तो शेष साधना क्या रही?
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