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प्रथम प्रकाश
पापी मन समस्त दुर्गुणों का मूल है । मन के पाप से प्राणी उखड़ा - उखड़ा सा रहता है, वह कहीं भी शांति को प्राप्त नहीं कर पाता है । पाप के भार से बोझिल यह मन कभी-कभी हलका होना चाहता है, परन्तु पाप के भार को वह उतारना नहीं चाहता है ।
तब स्थिति अत्यन्त भयावह हो जाती है, जब मन अपने पाप को पाप ही नहीं समझता । पाप का भान हो जाने के पश्चात मन के अन्तरंग दुर्गुणों का विलय होने लगता है । तब मन स्वयं को शुद्ध अनुभव करता है ।
यहां 'मन का योग' शब्द के दो अर्थ हैं । 'मन के विचार ' भी मन का योग हैं तथा मन को योगी बना लेना भी 'मन का योग' है । मन के एक क्रियात्मक योग को छोड़ कर अक्रियात्मक योग का अपनाना ही योगी के मन का योग है ।
मन के विचारों का यह योग तीन प्रकार का हो सकता है । १. अशुभ विचारों से निवृत्ति २. शुभ विचारों में प्रवृत्ति ३. शुभाशुभ विचारों से निवृत्ति ।
१. धर्म के नाम पर रूढ़ किसी भी ज्ञान रहित क्रिया को हम प्रथम प्रकार में सम्मिलित कर सकते हैं । इस में कोई शुभ विचार हो या न हो, व्यक्ति पापों से आंशिक रूप से बच जाता है ।
२. ज्ञान सहित की जाने वाली कोई भी धर्म- क्रिया अथवा स्वाध्याय के समय की एकाग्रता आदि को शुभ विचारों की द्वितीय कोटि में रखा जा सकता है। शुभ विचारों के द्वारा अशुभ विचारों की श्रेणी उसी प्रकार समाप्त हो जाती हैं, जैसे प्रकाश के आने पर अंधकार । प्रति समय बध्यमान कर्मों में शुभअशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का बंध होता है । परन्तु एक की प्रधानता में द्वितीय को गौण ही समझा जाता है ।
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