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योग शास्त्र काया नहीं पहुंचते, मन वहां भी पहुंच जाता है । ___मन को दुर्विचारों में केन्द्रित करने से, अपराध तथा पाप की प्रवृत्तियां बढ़ जाती हैं तथा मन को सुविचारों में जोड़ने से पूण्य का अर्जन होता है। शास्त्रकारों ने तो "मन एवं मनुष्याणां, कारणं बंधमोक्षयोः" कह कर मन को मानो सर्वोच्च न्यायालय से उपमित किया है। मन का निर्णय अन्तिम निर्णय है । मन सेचाहो तो मुक्ति को प्राप्त कर लो, चाहे तो बंध को प्राप्त कर लो। निर्णय आत्मा ने करना है, कि वह मन से कौन सा कार्य करवाए।
कई बार प्राणी, वचन तथा काया से जिन पापों को करने में अशक्त होता है, उन्हें वह मन से कर देता है । वचन-कृत या काया-कृत पापों में मन का योग अल्प होगा, तो बंध अल्प होगा, परन्तु मनः कृत पाप में वचन या काया का योग अल्प होगा, तो बन्ध अल्प न होगा । मन प्रधान है, अतः एव वह पाप बंध में मुख्य भूमिका का निर्वाह करता है ।
प्रश्न है, कि मन के स्रोत को किस तरफ प्रवाहमान किया जाए ? उत्तर पूर्णतया स्पष्ट तथा सरल है, कि मन के जिस तरफ बहने से मानव सुख शांति अर्जित कर सकता हो-उसी तरफ मन का प्रवाह वेगवान् बनाना चाहिए।
भौतिक सुखों में लिप्त मन, क्या शांति प्राप्त कर पाता है ? मन की शक्तियां जब अधोगामिनी बन जाती हैं, तो मानव को भ्रांति ही भ्रांति होने लगती है । वह सुख में भी भ्रान्त रहता है और दुःख में भी भ्रान्त रहता है । वह सुख में भ्रान्त इस लिए रहता है. कि सुख की स्थिति, वास्तविकता, मर्यादा तथा सान्तता को विस्मृत कर देता है । वह दुःख में भ्रान्त इस लिए रहता है कि दुःख के कारणों को भूल कर निमित्त मात्र को दोषी ठहराता है। मन की दोनों स्थितियां भयावह हैं।
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