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________________ ५२] प्रथम प्रकाश अकृत्रिमता होनी चाहिए । ऐसो वाणी को योग कहा जाता है । काया तथा वाणी का योग प्राप्त होने के पश्चात्, मन के योग का क्रम प्राप्त होता है । मन का योग : - मन के विचार, मन की कल्पनाएं, मन की चिंताएं, कर्म बन्ध के मूल स्रोत हैं । इन को रोकना योगी के लिए आवश्यक है । व्यवहारिक रूप में वचन तथा काया के कार्यों का Action तथा Reaction दृष्टिगोचर होता है । वचन तथा काया के कर्मों, का फल स्पष्ट अनुभूत भी होता है । परन्तु मन तो अन्तर्वर्ती है, गुप्त है तथा अदृश्य है । उस का बाह्य रूप से क्या फल हो सकता है ? एक तथ्य निश्चित है, कि वचन तथा काया के कार्य मन की गतिविधियों पर आधारित हैं । मन के द्वारा संकेत या आज्ञा को प्राप्त करके ही वचनादि, कार्य-विधि का श्री गणेश करते हैं । विश्व के सम्पूर्ण संचालन के पीछे मन का ही हाथ है । मन के दूषित विचारों से, काया तथा वचन, पतन की ओर चल पड़ते हैं। मन की कुत्सित इच्छाओं से मानव को नरक गति का संबल प्राप्त होता है । कुछ ही व्यक्तियों (इन्जीनियरों) के विचारों से देश का निर्माण कार्य होता है । कुछ ही शासकों के मन की विचारधारा का फल समस्त देश तथा विश्व को भोगना पड़ता है । कुछ ही I . A. S. अफसर अपनी योजना शक्ति के द्वारा समस्त शासन तंत्र का संचालन करते हैं । यह मन क्या व्यर्थ है ? असार है ? निर्बल है ? वस्तुतः यदि वचन तथा काया प्रबल हैं, तो मन प्रबलतर है । मन की शक्तियों से कौन अपरिचित है ? मन से ही मानव जीवन का निर्माण होता है, तथा मन ही विध्वंस को निमन्त्रण देता है । मन की गतिविधियों का संसार विशाल है। जहां वचन तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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