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________________ योग शास्त्र ५१ जब केवल एक इन्द्रिय से व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त करता है, तो पाँचों इन्द्रियों अर्थात् सम्पूर्ण शरीर को भोग के प्रति समर्पित कर देने से क्या परिणाम हो सकता है ? पाठकों से यह छिपा हुआ नहीं । इस प्रकार योग की साधना में शरोर बहुत बड़ी बाधा है, परन्तु यही शरीर योग का साधक अंग भी हो सकता है । वचन का निरोध :- वाणी का पाप, शरीर के पाप से भी अधिक होता है । वचन की हिंसा, प्राणी यदा-कदा करता रहता है । वचन से जब ईर्ष्या-द्वेष के शब्द निकलते हैं, तो श्रोता के लिए वे असह्य हो जाते हैं । यद्यपि वचन का पाप, काया के पाप से छोटा दिखता है, तथापि वह छोटा नहीं हैं । काया के पाप से पूर्व, मानव दस बार सोचता है, वर्षों तक सोचता रहता है, इस प्रकार वह काया के कतिपय पापों से बच जाता है। जबकि वचन का पाप प्रायः अनायास हो होता है। मानव को पता भी नहीं होता, कि मैं इच्छा पूर्वक या सहज रूप से जो बात या निंदा कर रहा हूं, उस का कटु परिणाम क्या होगा ? मानव सहज ही, बिना विचार किए, कुछ न कुछ बोल देता है और अन्त में पश्चाताप करता है। अधिक बोलने वाला, हृदय में शूल वत् चुभने वाले शब्दों का अधिक उपयोग करता है। वाणी की असमीचीनता अनुपात पर आधारित है । १० शब्द बोलने वाला यदि एक बार असमीचीन बोलेगा, तो १०० शब्द बोलने वाला प्रायः उसी अनुपात में (५ बार ) असमीचीन बोलेगा । अतः शब्दों को गांधी जी के अनुसार, कम से कम इस्तेमाल करो । जहाँ एक शब्द से काम चलता हो, वहां २ शब्द मत बोलो । मन में विचार तो बहुत आते हैं, परन्तु वे सब अभिव्यक्त नहीं कर देने चाहिएं। Jain Education International प्रयोग में सत्यता, शालीनता, सभ्यता, यथार्थता, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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