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योग शास्त्र
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माया रूपी धागे का दूसरा सिरा ( किनारा) उन के हाथ न लग सका। काया जितनी सुन्दर है, उतनी ही कपटी है । काया जितनी उज्ज्वल है, उतनी अन्तस्तल पर श्याम घटाओं से परिवेष्टित है । काया जितनी भोली है, उतनी ही तेज गोली है । काया की अपनी धुरी है, जिस के इर्द-गिर्द यह अन्तहीन चक्कर लगाती रहती है । काया एक ऐसी मधु सिक्त धुरी है, जो अपनी प्रिय स्वामिनी आत्मा का ही गला काट रही है, अतः इस काया का क्या विश्वास ? इस काया पर क्या श्रद्धा ? इस काया से कैसा प्रेम ?
काय मोक्ष की साधिका है, परन्तु कभी-कभी आत्म स्वरूप की विराधिका बन जाती है । काया का आरोग्य सुखद है, परन्तु यदा-कदा यह सौख्य दुःखजाल की प्रकट चिता बन जाता है । " शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् " - शरीर धर्म का प्रथम साधन है, शरीर न होगा, तो धर्म कैसे होगा ? परन्तु कभी-कभी यह शरीर ही नरक - तिर्यञ्च गति का प्रथम सोपान बन जाता है ।
अतएव महर्षि पतञ्जलि के चित्त वृत्ति शब्द में काया तथा वचन को भी समाहित किया गया है। आप का चित्त आप की काया का सेवक तो नहीं ? आप की काया निष्पाप तो है ?
काया के निरोध में योगियों में कोई मतभेद नहीं । तभी तो छः प्रकार के बाह्य तप में संलीनता को भी परिगणित किया गया है । आवश्यक है - काया के अंगों को सीमित रखना | काया की गति तथा अंगों की कोई भी चेष्ठा निरर्थक न हो । जब तक मानव का शरीर स्थिर नहीं होता, तब तक मन भी स्थिर नहीं हो सकता । शरीर की स्थिरता पर ही मन की स्थिरता का आधार है । जब शरीर चंचल होगा-शरीर निरर्थक चेष्टाएं करता रहेगा, तो मन भी भटकेगा ।
आप घर में शांति से बैठे हैं । आप ने बाजार में कोई विशेष ध्वनि सुनी, आप उठ कर गवाक्ष तक पहुंच जाते हैं ।
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