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________________ ४४] प्रथम प्रकाश के योगों से दूर होना है, आश्रव को छोड़ना है । यदि मैं कीड़ियों को हटाने बैठंगा-तो वहां पर पाप होगा। आश्रव होगा, कर्मों का बन्धन होगा। वह आराम से खड़ा है, टस से मस नहीं हो रहा है, निश्चल बन गया है मेरु की तरह । और उसी समय कर्मो की निर्जरा शुरू हो जाती है। जो योगी बन जाता है, उस का मन भी उसके वश में होता है। उस की वाणी भी उस के वश में होती है । उस का शरीर भी उस के वश में होता है। जब तक वह सोचेगा नहीं, तब तक शरीर के द्वारा पाप नहीं होगा। महापुरुष कहते हैं, कि शरीर को साधना बहुत आसान है, अपनी वाणी की साधना भी बहुत आसान है, लेकिन अपने मन को साधना बहत मश्किल है। अरे ! यह मन ही पापी है। शरीर पाप नहीं करेगा, वाणी गलत नहीं बोलेगी, लेकिन जो मन है, वह तो घूमता रहता है । यह बन्दर की तरह चंचल है । इस मन में कुछ न कुछ विचार आते ही रहते हैं । मन को संभालना बहुत मुश्किल है । लेकिन महापुरुष कहते हैंकि यदि पाप आदि बुरे कामों में आप का मन जाता है तो कोई बात नहीं, जाने दो, लेकिन शरीर को मत जाने दो। यदि शरीर बुरे काम में चला गया, तो समझ लो. सब कुछ चला गया। तब कुछ नहीं बचेगा। अंग्रेजी में कहावत है- If the character is lost, everything is lost. आप ने यदि अपना चरित्र गंवा दिया, तो समझ लो सब कुछ गंवा दिया। यह मन है, मन जाता है, तो जाने दो, शरीर को मत जाने दो, वाणी को मत जाने दो और एक दिन वह भी आयेगा, जब शरीर नहीं जायेगा। आप को वाणी पाप में नहीं जायेगी, तो यह मन भटकभटक कर कभी तो वश में होगा ही। मन को वश में करना फिर बिल्कल आसान हो जायेगा। लेकिन जब हम मन के अनुसार चलते हैं, मन के अनुसार वाणी और शरीर का प्रयोग करते हैं तो फिर समस्या बहुत बड़ी हो जाती है। मन जाता है, तो जाने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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