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योग शास्त्र
[४३ कठिन है । कर्म मुक्त होने के लिए इन्द्रियों के विषयों का तथा मन के विचारों का निरोध होना ही चाहिए । “आश्रव निरोधः संवरः"-आ रहे कर्मों को रोकने का नाम संवर है । अभी तक चोरी, जारी तथा हत्या के विचारों से मैंने बहुत कर्मों का बन्धन किया। अब कर्मों को आगे बढ़ने से रोकना है । इस के लिए मन का निरोध, वचन का निरोध तथा काया का निरोध करना होगा।
चिलातिपुत्र, महात्मा के स्थान पर ही, शिला पर खड़े हो गए। अभी अभी एक युवती की हिंसा किये जाने के कारण, उसके वस्त्र तथा उस का शरीर खून से लथपथ थे। खुन की गंध से कीड़ियां वहाँ आ पहंचीं। उन्होंने चिलाति के शरीर को काटना प्रारम्भ किया । कुछ ही समय में वे उस के शरीर के आरपार प्रवेश कर गईं। उन्होंने चिलाति पुत्र के शरीर को छलनी बना दिया, परन्तु चिलाति पुत्र अडिग रहा । वह विचार कर रहा था, 'गुरु मंत्र' का-'उपशम विवेक संवर का' । कीड़ियों के द्वारा काटने पर उसे क्रोध आता, परन्तु उपशम की स्मृति होते ही वह उपशांत हो जाता। कभी-कभी देह की पीड़ा से देह पर ममत्व जागृत होता, परन्तु तभी विवेक के द्वारा वह ममत्व को शांत करता । जब कभी अशुभ विचार आते, तो त्वरित गति से संवर की स्मृति होती, तथा वह अशुभ परिणामों से बच जाता । वह सोचने लगा, ये कीड़ियां मेरे शरीर में जा रही हैं, लेकिन यह शरीर तो मेरा है ही नहीं। ये मेरी आत्मा के अन्दर तो जा नहीं सकतीं। ये शरीर के अन्दर जा रही हैं और यह शरीर मेरा बिल्कुल नहीं है। यह जो पीड़ा मुझे हो रही है, यह पीड़ा भी आत्मा को कैसे हो सकती है ? आत्मा तो संवर में है, ज्ञान-दर्शन में है, सुख में है, भला उस को पीड़ा कैसी? पीड़ा शरीर को होती हो, तो भले ही होती हो । मेरी आत्मा को कोई पीड़ा नहीं। इस प्रकार हो रहे विवेक के कारण शरीर से मोह छट गया और विचार आया, कि मुझे तो संवर पाना है। मन, वचन, काया
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