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प्रथम प्रकाश न यह धन मेरा है, न ही यह परिवार मेरा है।" विवेक उस में जागत हो गया तथा उस ने "मेरा-तेरा" करना छोड़ दिया।
आज कल संसार का सारा चक्कर "तेरे-मेरे" पर ही चलता है। संसार में चक्कर ही "मेरे-तेरे" का है । हम वस्तु को विभाजित कर देते हैं । ये मेरी वस्तुएं हैं, ये तेरी वस्तुएं हैं। कुछ लोग तो ऐसे होते हैं,जो यह कहते हैं, कि जो मेरी हैं, वे तो मेरी हैं ही, जो तेरी हैं, वे भी मेरी हैं । कैसे-कैसे लोग हैं इस दुनियां में । “अपना खाऊं तो खाऊं, तेरा खाऊं तो क्या दे।" अपनी वस्तु तो मैंने खानी ही है, यदि तेरी वस्तु भी खा लूं, तो बता ! क्या ईनाम देगा?
वास्तव में जो मेरा शरीर है, जो मेरा धन है, जो मेरा वैभव है-वह मेरा नहीं है। शुद्धात्मा ही मात्र मेरी है। बाकी संसार का कोई पदार्थ मेरा नहीं। इस विवेक के आते ही उसने सुषमा का सिर एक तरफ फेंक दिया तथा विचार श्रेणी में आगे
बढ़ा।
संवर-अब चिलाति पुत्र ने महात्मा के द्वारा संक्षेप में कथित, धर्म के ततीय पद का विचार किया। संवर क्या हो सकता है ? संवर में धर्म कैसे ? चिलाति ने अपनी आत्मा के ज्ञान का संपुट खोलना प्रारम्भ किया। सं +वर = संवर। संवर का अर्थ है, रोकना । रोकना तो अच्छा है, परन्तु किस को रोकना ? दूसरों को रोकना ? दूसरों को रोकने का परिणाम तो आज भोग रहा हूं। यदि स्वयं को सुषमा के मोह से रोका होता, तो कितना अच्छा होता। इन मोह विचारों तथा इच्छाओं का त्याग भी अनिवार्य है । बाह्य शरीर का संचालन करने से अनेक सूक्ष्म प्राणी मर जाते हैं, अतः शरीर का संवर अति आवश्यक है । ये मन के विचार ! शुभ तथा अशुभ विचार ! अशुभ विचारों से पतन होता है, पापों का बंध होता है। शुभ विचारों से पाप का बंध नहीं होता। परन्तु शुभ विचार भी मन से ही उत्पन्न होते हैं । इन्द्रियों को तथा मन को पूर्णतः रोकना आवश्यक है । परन्तु यह कार्य अति
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