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योग शास्त्र
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हो सकता है। विवेक से व्यक्ति अप्रमत्त बन जाता है।
शास्त्रकारों के अनुसार 'जयणाधम्मस्स जणणी' अर्थात् यतना (विवेक) धर्म की माता है। जहां विवेक होता है, वहीं पर धर्म होता है। प्रत्येक धर्म-क्रिया, जो विवेक पूर्ण होती है, धर्म कहलाती है तथा कोई भी क्रिया जब विवेक से रहित होती है, अधर्म नाम से अभिहित होती है । यहां तक कि संसार की सामान्य क्रियाएं भी यदि विवेक पूर्ण हो जाएं, तो वे भी धर्म रूप हो सकती हैं। आचार्य शय्यंभव सूरि जी के शब्दों में
जयं चरे, जयं चिट्रे, जयंमासे, जयं सए।
जयं भुजंतो भासंतो, पाव कम्मं न बंधई ॥ अर्थात्-यतना पूर्वक चलने से (६ हाथ आगे दृष्टिपात करके चलने से), यतना पूर्वक खड़े रहने से, यतना पूर्वक बैठने से, यतना पूर्वक शयन करने से, यतना पूर्वक भोजन करने तथा बोलने से पाप कर्म का बंधन नहीं होता। ___ ये सामान्य सांसारिक क्रियाएं भी विवेक के योग से पाप रहित हो सकती हैं । यह है विवेक की महिमा । अंग सूत्रों के अनुसार
- 'विवेगो मोक्खो' अर्थात्-विवेक ही मोक्ष है । विवेक जागृति है, सावधानी है, सचेतनता है । जो व्यक्ति सदैव आत्मा के शत्रुओं के प्रति सावधान रहता है, उस का कर्म बंध अत्यल्प होता है ।
पर भाव में रहना, भौतिकता है । आध्यात्मिकता का सम्बन्ध मात्र आत्मा से है। सांसारिक पदार्थों के प्रति मोह, प्रेम, राग, यह अविवेक ही तो है । जब यह शरीर मेरा नहीं, तो कुछ 'अन्य' मेरा कैसे हो सकता है ? सुषमा का सिर मेरा कैसे हो सकता है ? वह सोचने लगा, "मेरी आत्मा ही मेरी है। बाकी संसार का कोई पदार्थ मेरा नहीं है । न ही यह शरीर मेरा है,
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