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________________ ४०] प्रथम प्रकाश था, छोटा सा पाठ - "मारुष ! मातूष ! रोष मत करो । तोष मत करो । खुशी में फूलो मत और गमी मं दुखी न होवो ।” उसने इसे ही अपने जीवन का सिद्धान्त बना लिया था । खुशी और गमी को छोड़ कर हमेशा समता की साधना करने से माषतूष मुनि भी मुक्ति में चले जाते हैं। यहां चिलति पुत्र समता की साधना करता है । समभाव में आ जाता है । सभी प्रपंचों को छोड़ देता है और धारण कर लेता हैं 'सम' को । मुझे शांत रहना है, कुछ भी हो जाए । शांति को नहीं छोड़ना है । शांति मेरा परम धन है ।" वह विचार करता है, कि मैंने पाना है उपशम को और हाथ में पकड़ी है, तलवार । क्या मेल है इन दोनों का ? मुझे शांत होना है, परन्तु मेरे अन्दर क्रोध भरा हुआ है । अभी-अभी मैंने एक कन्या की हत्या की हैं। मैं कितना पापी हूं ।" यदि आप धर्म ध्यान करते है, लेकिन इतना होने के बाद भी आप के मन में शांति नहीं आती, तो समझो, कि धर्म ध्यान आप का सही तरह से नहीं हो रहा है । मुझे ऐसे बहुत लोग कहते हैं, कि महाराज ! हम धर्म ध्यान तो बहुत करते हैं, लेकिन आत्मिक और मानसिक शांति (Peace of mind) प्राप्त नहीं हो पा रही है। कारण क्या है ? धर्म से शांति मिलनी चाहिये न ।" मैं उन से कहता हूं, “भाई ! धर्म से शाँति इस लिये नहीं मिली, क्योंकि तुम ठीक ढंग से धर्म नहीं कर रहे हो । यदि तुम धर्म सही तरह से करना शुरू कर दो, तो शांति अवश्य मिलेगी, इस में कोई दो राय नहीं हो सकती । विवेक : उपशम की प्राप्ति के लिए उस ने तलवार को फेंक दिया । चिलाति पुत्र ने विवेक का अर्थ समझा-स्व पर का भेद विज्ञान । 'स्व' आत्मा ही है । संसार के शेष पदार्थ "पर" हैं । इस गहन अरण्य में, 'मैं' कौन ? क्या यह शरीर "स्व" है, "पर” नहीं ? यह शरीर भी "पर" ही है । यह शरीर छिन्न-भिन्न होता है, संयोग से उत्पन्न तथा वियोग से विनष्ट होता है । यह शरीर जब मेरा नहीं, तो संसार का कोई अन्य पदार्थ 'मेरा' कैसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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