SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग शास्त्र (३६ ___अर्थात्-बाह्य क्रियाओं का आश्रय लेता हुआ भी मुनि जब योग पर आरूढ़ होता है, तो शम से ही वह शुद्ध होता है। समतावान को कोई विकार या विकल्प नहीं होता। निरन्तर करुणा के भाव तथा शम रूपी नदियों के वेग से वासनाओं के वृक्ष उखड़ जाते हैं । शास्त्रों के अनुसार स्वयंभूरमण समुद्रवत् शांत तथा गंभीर साधु के लिए इस जगत में कोई भी उपमा नहीं है। प्रशमरतिकार कहते हैं कि शमवान् (समता धारी) साधु को इस संसार में रहते हुए ही मोक्ष का सुख होता है। जितनी समता, उतना सुख । जितनी ममता, उतना दुःख । परन्तु यह समता ज्ञान-ध्यान आदि शुभ भावों तथा शुद्ध उपकरण सामग्री के सद्भाव में ही संभव है। चिलाति पुत्र को समता के सम्यक् अर्थ का बोध हुआ। उस की आत्मा में चिरकाल से सुप्त ज्ञान जागृत हो रहा था। उस ने मुनिराज के एक ही वचन से धर्म के सार को प्राप्त कर लिया। उस के पश्चात् उसे महात्मा के दूसरे शब्द पर विचार करने का दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ। . आप माषतूष मुनि का कथानक जानते ही हैं, उस के पास कौन सा ज्ञान था ? कौन सा ध्यान था ? कूरगडु मुनि का नाम भी आप जानते हैं, उस के पास कौन सी तपस्या थी ? उस के पास थी समता । साधु उस को अच्छा बुरा कहते रहे । लेकिन उस के मन में एक मात्र समता थी। ज्यों-ज्यों हमारा ज्ञान ध्यान बढ़ता चला जाता है । त्यों-त्यों हमारा अभिमान, क्रोध बढ़ता चला जाता है, आज कल सारा उल्टा रिवाज़ है। लोग धर्म क्रिया भी करते जाते हैं और साथ में विष वमन भी करते चले जाते हैं । जो साधु समता को धारण कर लेता है, उस को जल्दी मोक्ष होता है । ज्ञान ध्यान से भी क्या होता है ? कूरगडु मुनि रोज भोजन करता था, लेकिन फिर भी समता के द्वारा तिर गया और माषतूष मुनि, उसने तो एक पाठ सीख लिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy