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प्रथम प्रकाश
करने वाले कोतवाल तथा श्रेष्ठि पुत्रों पर मेरा कैसा द्वेष है । इन लोगों ने मुझे जितना परेशान किया है, इस का उत्तर तो देना ही चाहिए | Tit Fat Tat - वैर से वैर को काटना चाहिए । इन विचारों को ही तो शांत करना है । मैंने द्रोही हो कर भी स्वयं को शूरवीर समझा । यह अभिमान भी शांत करना है । माया कपट करके मैंने लोगों का धनापहरण किया है । माया का भी समूल नाश करना है । और लोभ ! अरे लोभ के कारण ही तो यह सारा काण्ड हुआ है । मोह तो मेरे अन्तर्मन में कूट-कूट कर भरा है । उसे शांत करना आवश्यक है । इस प्रकार क्रोधादि पर उस ने नियन्त्रण किया । क्षमा का भाव जागृत हुआ । "यह सेठ अपराधी नहीं, अपराधी तो मैं हूं, जिस ने उस की पुत्री का अपहरण किया है । सेठ पर कैसा क्रोध ! चिलाति पुत्र की समस्त विचार धारा ही बदल जाती है । वह मन ही मन सेठ से अपराध की क्षमा याचना करने लगा ।
वस्तुतः राम की साधना साधक की साधना की कसौटी है । समस्त धम - क्रियाओं का सार शम है । शम ही धर्म का फल है । यदि बाह्य धार्मिकता तो बढ़ती जा रही हौ, परन्तु समता का भाव मन मं न आए, क्रोध की उपशांति न हो, तो वह धार्मिकता कैसी ? समता के द्वारा साधक में सहिष्णुता आविर्भूत होती है । साधना का पथ प्रशस्त होता है ।
साधना के मार्ग पर अनेक बार बाधाएं उपस्थित होती हैं । सहिष्णु साधक ही उन का सामना कर सकता है । समता के द्वारा क्रोधादि दोषों की शक्ति समाप्त हो जाती है । कर्म बन्ध सीमित हो जाता है । समता के अनेक भेद हैं- क्रोध को शांत करना, ममता को समता के द्वारा समाप्त करना, अधर्मी को देख कर माध्यस्थ्य भाव धारण करना, कष्टों के आने पर उन्हें कर्म चक्र का फल मानना तथा प्रेम भाव आदि ।
जब श्री राम चन्द्र जी वनवास के लिए चले, तो प्रजा तथा
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