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योग शास्त्र पत्थर व लाठियाँ मारते । परन्त दढ प्रहारी के मन में एक ही विचार आता, कि यह तो मेरे स्वकीय कर्मों का ही फल है। As you sow, So shall you reap ये सब मेरे कर्मों से मुझे मुक्ति दिला रहे हैं, अतः शत्रु नहीं, मित्र हैं।
दृढ़ प्रहारी सकाम निर्जरा के द्वारा दुष्कर्म की ग्रंथी का भेदन कर देता है तथा विचार करता है, कि इन उपकारी लोगों का कितना उपकार मान । ये लोग मझे कष्ट पहंचा कर कर्म बंध कर रहे हैं-यह दुःख का विषय है। ये लोग मेरे प्राणों को समाप्त कर सकते हैं। मेरे धर्म का अपहरण नहीं कर सकते । "अस्तु..... जीव ! क्षमा रख । क्षमा में ही धर्म है।" इसी क्षमा, भाव शुद्धि, मैत्री तथा भाव करुणा रूप योग से, दढ़ प्रहारी को केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। .
इस प्रकार जन्म जन्मांतर में साधना करने वाले भरतादि, अनादि काल से मिथ्यात्वी मरुदेवी आदि तथा हत्यारे दृढ़ प्रहारी जैसे व्यक्ति भी, योग के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं।
तत्काल कृत दुष्कर्म, कर्मठस्य दुरात्मनः । .. गोत्रेचिलातिपुत्रस्य, योगाय स्पृहयेन्न कः ॥१३॥ अर्थ : स्त्री वध रूप तत्काल कृत पापों से दुर्गति में पतित हो रहे चिलाति पुत्र की रक्षा करने वाले योग की कौन इच्छा नहीं करता?
विवचन : एक यज्ञ देव नामक एक ब्राह्मण ने, किसी जैन साधु के साथ विवाद करते समय यह शर्त लगाई, कि जो हारेगा, वह दूसरे का शिष्य बन जाएगा। ब्राह्मण पराजित होने पर साधु का शिष्य बन गया। परन्तु पूर्व संस्कारों के कारण कुत्सित वस्त्र, मैल आदि के कारण उदास रहता। उस ब्राह्मण मुनि की भूतपूर्व पत्नी ने जो अभी तक पति के प्रति अनुरागिणी थी-भोजन में पति साध को कामन कर दिया। वह क्षीण हो कर मत्य को प्राप्त कर के देव लोक में गया। इस दुःख-गर्भित वैराग्य के
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