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प्रथम प्रकाश की भयंकर लड़ाई हो रही थी, तब गृह स्वामी के पक्ष में गाय मध्य में आ पहुंची।
दृढ़प्रहारी चोर ने तुरन्त एक ही प्रहार से गाय को यमद्वार पहुंचा दिया । तत्पश्चात् ब्राह्मण को भी मृत्यु के अंक में सुप्त कर दिया। यह देख कर गर्भवती ब्राह्मणी आवेश से चोरों की
ओर दौड़ी, परन्तु उस निर्दय चोर ने ब्राह्मणी के उदर में तलवार से प्रहार किया । तुरन्त ही गर्भ पृथ्वी पर आ पड़ा तथा ब्राह्मणी भी पञ्चत्व को प्राप्त हुई। यह दारुण-वीभत्स दृश्य देख कर बच्चों ने अपार क्रन्दन किया।
अपने क्रोध के करुण परिणाम को देख कर दृढ़प्रहारी सिर से पैरों तक कंपित हो उठा । तुच्छ सी वस्तु के लिए ४-४ जीवों का वध ? बालकों की दुर्दशा तथा भावी देख कर वह मन ही मन पश्चाताप के आँसू बहाने लगा। वह दुर्गति से रक्षा के लिए कोई उपाय ढूंढने लगा।
नगर के बाहर उसे एक साधु का दर्शन हुआ। दृढ़ प्रहारी ने मुनि को नमस्कार करके कहा, 'हे मुनिराज ! मैं पापी हूं । एक हत्या से दुर्गति की प्राप्ति होती है, तो चार हत्याएं करने वाले इस नराधम का क्या होगा? मुनिराज ! मैं आपकी शरण पड़ा हूं।"
मुनिराज के द्वारा उपदिष्ट यतिधर्म को स्वीकार करके दृढ़ प्रहारी ने अभिग्रह किया, कि जिस दिन मुझे पाप का स्मरण होगा, उस दिन मैं आहार ग्रहण न करूंगा तथा सर्व जीवों को क्षमा करूंगा।
विहार करते हुइ मार्ग में लोगों ने उसे विभिन्न वचनों से अपमानित किया। "यह महा पापी धूर्त अब कपट रूप से साधु बन गया है। यह तो गो, ब्राह्मण, स्त्री-गर्भ का हत्यारा है, यह नीच है।" इत्यादि वचनों का श्रवण, उस का प्रतिदिन का कार्यक्रम बन गया। आहारार्थ गृह में प्रवेश करता, तो लोग उसे गालियां सुनाते
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