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________________ योग शास्त्र [३१ पास हैं, परन्तु इस नें एक भी देवता मेरे पास संदेश कहला कर न भेजा । अस्नेही के प्रति स्नेह कैसा ? यह तो श्रमण बन कर ही निर्मोही बन गया था, मैं ही इस को न समझ सकी । अब वीतराग बनने के पश्चात् यह मेरी ओर देखेगा ही क्यों ? अब मरुदेवी को भी 'ऋषभ' में परत्व दिखने लगा। मोह समाप्त हुआ, विवेक प्रकट हुआ । आत्मलक्षी शुद्धोपयोग हो जाने से समस्त कर्मों का वहीं पर क्षय हो गया तथा उसी समय आयु का अन्त होने से मरुदेवी माता को मोक्ष प्राप्ति हुई । अनेन प्रकारेण योग के द्वारा अनादि मिथ्यात्वी जीव भी अन्तर्मुहूर्त में कैवल्य को प्राप्त कर सकते हैं । ब्रह्मस्त्री भ्रूण गोघात, पातकान्नर कातिथेः । दृढ़ प्रहारि प्रभृतेर्योगो, हस्तावलंबनम् ॥१२॥ अर्थ : ब्राह्मण, स्त्री, गर्भ तथा गाय के वध के पाप से नरक का मेहमान बनने वाले, दृढ़प्रहारी जैसे व्यक्ति भी योग के आलंबन से स्वरक्षा कर सके । विवेचन : एक नगर में रहने वाले एक ब्राह्मण को नगर वासियों ने नगर से बहिष्कृत कर दिया, क्योंकि वह अत्यन्त पापी तथा अन्यायी था । वह वहां से एक चोरपल्ली में पहुंचा । दया रहित होकर अनेक हत्याएं करने से तथा उस का प्रहार खाली न जाने से लोगों ने उस का नाम दृढ़प्रहारी रख दिया । एक बार वह एक नगर में चोरी करने गया। वह जिस घर में प्रविष्ट हुआ, वहां उस महादरिद्र व्यक्ति ने बालकों के आग्रह से लोगों से चावल आदि मांग कर खीर आदि तैयार की थी । एक चोर ने उस घर में जब खीर को देखा, तो वह खीर का बर्तन उठा कर भागा । गृहस्वामी को ज्ञात होने पर वह एक तीक्ष्ण हथियार लेकर चोरों को मारने के लिए दौड़ा। अब गृह स्वामी के साथ चोरों For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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