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प्रथम प्रकाश विवेचन : मरुदेवी माता ने कभी भी त्रसत्व या मनुष्य जन्म को प्राप्त नहीं किया था। वे सूक्ष्म निगोद में से निकल कर . केले का भव कर के मनुष्य बनी थीं। जब भगवान ऋषभ देव को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ, तब भरत चक्री ने दादी मां से कहा, "माता जी ! आप अपने पुत्र के द्वारा दोक्षा धारण करके वन में चले जाने से रुदन कर रही थीं। १००० वर्षों तक आप पुत्र के प्रेम से हास्य तक भूल गईं । अब आप के वही पुत्र, देवताओं की सेवा से सुशोभित, समवसरण में विराजित हो कर, केवल ज्ञान प्राप्त करके पूरीमताल नगरी में पधारे हैं। आप मेरे साथ चलें तथा देखें कि आप के पुत्र ने कितनी ऋद्धि को प्राप्त किया
___ इस प्रकार जब भरत, हाथी पर मरुदेवी को लेकर भगवान् के पास पहुंचे, तो वहां देव-दुंदुभि आदि की ध्वनि को सुन कर मरुदेवी माता के मन में हर्षावेग उमड़ पड़ा। भरत ने देवताओं की उपस्थिति आदि का वर्णन करते हए मरुदेवी से कहा, कि यह वाणी ऋषभ देव की है, जिसे लाखों लोग प्रेम पूर्वक सुन
सहस्र वर्ष पश्चात् भाव्यमान पुत्र मिलन एवं पुत्र दर्शन की संभावना से ही मरुदेवी की रोमराशि खिल उठी थी। सर्वोच्चपद को प्राप्त पुत्र को देखने के लिए उत्सुकता थी, परन्तु हज़ार वर्ष तक रोते रहने से मरुदेवी के नयनों पर आवरण आ चुके थेवे चाहने पर भी ऋषभ को न देख सकीं। उन के नेत्रों में हर्षाश्रु प्रवाहमान होने लगे। इन अश्रुओं तथा हर्षावेग के कारण मरुदेवी माता के नेत्र-पटल खुल गए। .
पुत्र की ऋद्धि को देख कर मरुदेवी के मन के विचारों में परिवर्तन आया, "अहो ! मैं पुत्र मोह से रुदन करती-करती अन्धी हो गई। और यह भी एक पुत्र है, जो माँ की ओर दृष्टि उठा कर भी नहीं देखता । इतनी निर्मोहता! इतने देवता इस के
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