________________
योग शास्त्र
[२६ इसी भावना के द्वारा भरत चक्री को केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई । इन्द्र ने आ कर मुनिवेष अर्पित किया तथा वन्दन किया।
योग की महिमा अलौकिक है। चक्रवर्ती सम्राट ने जब गहस्थावस्था में भी साधना योग के द्वारा केवल ज्ञान को प्राप्त कर लिया, तो जो योगी सदैव योग में मग्न रहते हैं, वे यदि योग की तीव्रता का अनुभव करें, तो उनका मोक्ष क्यों नहीं हो सकता ?
इस दृष्टांत से यह स्पष्ट हो जाता है, कि साधना योग का सम्बन्ध मन की भावना से है । बाह्य वेषादि तो निमित्त हो सकता है परन्तु यदि उत्कट विचार शुद्धि हो तथा अभ्यास, वैराग्य, एवं भक्ति भावना से मन ओत प्रोत हो, तो गृहस्थ भी जीवन के लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकता है । साधु का वेष, साधु जीवन का वातावरण, सद्गरु का सतत सान्निध्य, पठन पाठन, समाज सेवा, ये.पदार्थ वैराग्यादि के पोषक हैं, अतः साधु वेषादि व्यर्थ नहीं है । गृहस्थ जीवन में जो षड्काय की हिंसा अनायास ही होती रहती है, उस से साधु पूर्णतः पृथक् रहता है । हिंसादि पांच अव्रत न होंगे, तो साधु को पाप बंध भी अत्यल्प ही होगा । अतः मोक्ष का राज मार्ग साधुता का मार्ग है, जब कि गृहस्थावस्था में मोक्ष प्राप्ति अपवाद मार्ग है । भरत अथवा मरुदेवी जैसे गृहस्थाश्रम में मुक्त हो गए। लघुकर्मी जीवों का उदाहरण लेकर जप-तप छोड़ देना कदापि उपयुक्त नहीं हो सकता। अतः यथा शक्ति जप, तप, साधना के द्वारा योग की ओर अग्रसर होना चाहिए।
पूर्वमप्राप्त धर्माऽपि परमानंदनंदिता। ... योग प्रभावतः प्राप, मरुदेवी परं पदम् ॥११॥
.. अर्थ : यद्यपि पूर्व जन्मों में या पूर्व काल में भ० ऋषभ देव की माता मरुदेवी ने कभी भी धर्म को प्राप्त नहीं किया था, तथापि योग के प्रभाव से मरुदेवी माता ने मोक्ष को प्राप्त किया।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org