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प्रथम प्रकाश
विवेचन : इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे में, प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभ देव के पुत्र भरत महाराजा ने, पूर्व पुण्य के. उदय से चक्रवर्तित्व को पाया ।
क्षेत्र के ६ खंडों
भरत की आयुधशाला में चक्ररत्न के उत्पन्न होने के पश्चात् उस ने अपने भाईयों के राज्य को प्राप्त किया । उस के पश्चात् भरत ने ६० हजार वर्ष का समय भरत की विजय में व्यतीत किया । वापिस लौटने पर चक्र को आयुधशाला में प्रविष्ट न होते देख कर, उस ने भ्राता बाहुबली को दूत के मध्यम से समर्पण कर देने के लिए कहलाया, परन्तु बाहुबली युद्ध के लिए आ पहुंचा। भयंकर नरसंहार के पश्चात् देवों ने पांच प्रकार के युद्धों की स्थापना की। इन पांचों युद्धों में भरत को पराजय हुई | अन्त में भरत ने चक्र के द्वारा अपने भाई बाहुबली का शिरच्छेद करने की ठानी। परन्तु वह चक्र भी बाहुबली की प्रदक्षिणा करके पुनः भरत के हाथ में आ पहुंचा। अन्त में बाहुबली ने भरत को समाप्त कर देने की दृष्टि से मुट्ठी उठाई, परन्तु रणभूमि के रक्त पूर्ण वातावरण में उसे भ्रातृ-हत्या के पाप से दूर रहने की अन्तः स्फुरणा हुई । परन्तु क्षत्रिय की मुट्ठी खाली नहीं जा सकती थी । इसी मुट्ठी से बाहुबलो ने केशलुञ्चन करके मुनित्व को स्वीकार किया । भरत ने तुरन्त बाहुबली को वन्दन किया ।
भरत चक्रवर्ती अवश्य था, परन्तु उसे अपनी ६४००० रानियों तथा समृद्धि पर कोई मोह न था । एक बार अपने कांच महल में भरत राजा आभरणादि पहनने गए। वहां अचानक एक अंगुलि में से एक मुद्रिका गिर पड़ी । भरत को वह अंगुलि निस्तेज लगी । जब सारे शरीर के अलंकार उतारे, तो दर्पण में समस्त शरीर ही निस्तेज लगा । तुरन्त ही भरत को संसार की नश्वरता का भान हुआ वे विचार करने लगे, कि यह शरीर शोभावान् नहीं है । आभूषणों से यह शोभित है । इस पराई शोभा से मोह कैसा ?
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