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योग शास्त्र
वे महामुनि पहले कदम में मेरु पर्वत के पांडुक वन में, दूसरे कदम में वापिसी में नन्दन वन में होते हुए, तीसरी बार उड़ कर मूल स्थान पर आ सकते हैं।
२. विद्याचारण लब्धि--इस लब्धि से मुनि, पहले कदम से मानुषोत्तर पर्वत तथा द्वितीय कदम से नंदीश्वर द्वीप हो कर, तृतीय बार उड़ कर मूल स्थान में आ जाते हैं । ये खड़े, बैठे आदि किसी भी अवस्था में आकाश गमन कर सकते हैं।
३. जलचारण लब्धि-समुद्रादि में जलकाय की विराधना किए बिना जा सके।
४. फलचारण लब्धि-फलों के ऊपर, फल के जीवों की विराधना किए बिना, पैर ऊंचे नीचे करने में कुशल । इस प्रकार पुष्पचारण, पत्रचारणादि होते हैं।
. ५. अग्नि, धूम, हिम, धूमस, मेघ, जलधारा, जाल, सूर्यादि की किरण, पर्वत-श्रेणी, वायु आदि का अवलम्बन लेकर गति करने वाले चारण।
६. आशीविष लब्धि-अभिशाप तथा वरदान देने की शक्ति ।
७. अवधि ज्ञान-मन या इन्द्रियों की सहायता के बिना रूपी द्रव्यों को जानना।
८. मनः पर्यव ज्ञान -- ढ़ाई द्वीप में स्थित, जीवों के मन की बात को जानना।
अहो योगस्य माहात्म्यं, प्राज्यं साम्राज्यमुद्वहन् । - अवाप केवल ज्ञानं, भरतो भरता धिपः ॥१०॥
अर्थ : अहो ! योग का प्रभाव महान् आश्चर्यकारी है।
भरत क्षेत्र का अधिपति भरत, षड् खण्ड भूमि के साम्राज्य का स्वामी था। वह इसी योग के प्रभाव से केवल ज्ञान को प्राप्त कर सका।
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