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प्रथम प्रकाश राज ! दो प्रकार के रोग होते हैं, बाह्य तथा आभ्यन्तर । बाह्य रोगों से मुझे कुछ लेना देना नहीं हैं। ये रोग पुनः उदित हो सकते हैं। यदि आप मेरे आभ्यन्तर रोगों-काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि की चिकित्सा कर सको, तो मैं तैयार हूं । बाह्य रोगों की चिकित्सा तो मेरे पास भी है । यह कह कर सनत् मुनि ने अपनी थूक, त्वचा के एक भाग पर लगाई । तुरन्त उन का वह शरीर का भाग कंचन के समान बन गया। देवता दिग्मूढ़ हो कर देव लोक की ओर प्रस्थित हो गए।
पूर्व काल में संहनन आदि के माहात्म्य से तथा तपः साधना की उत्कटता से लब्धियां प्राप्त हो जाती थीं, परन्तु वर्तमान में सिद्धियों की प्राप्ति दुष्कर हो गई है । अभ्यास, वैराग्य, संयम आदि ही इस काल म दुःसाध्य हैं, तो लब्धियों की प्राप्ति के लिए स्थान कहां?
तथापि आज भी किसी-किसी महर्षि को लब्धियों की प्राप्ति हो जाती है, परन्तु महात्मा लोग उन लब्धियों-सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते।
चारणाशीविषावधि,-मन: पर्याय संपदः । योग कल्पद्रुमस्यैता, विकासि कुसुम श्रियः ॥६॥
अर्थ :-विद्याचारण लब्धि, जंघाचारण लब्धि, आशीविष लब्धि, अवधि ज्ञान तथा मनः पर्यव ज्ञान-ये योग रूपी कल्प वृक्ष के विकसित पुष्पों की शोभा हैं।
विवेचन : इन लब्धियों के भेद निम्नलिखित हैं :
१. जंघाचारण लब्धि--इस लब्धि से मुनि तीन कदमों से रूचक द्वीप तथा नंदीश्वर द्वीप की यात्रा कर सकते हैं- अर्थात् वे उड कर सीधे रूचक द्वीप पहुंचते हैं, दूसरी बार उड़ कर वापसी में नन्दीश्वर द्वीप में दर्शन कर तीसरे कदम में वापिस मूल स्थान पर लौट आते हैं।
अथवा
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