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योग शास्त्र
२५ "क्या इस का कोई प्रमाण भी है ?" तो देवों ने कहा, कि तुम्हारा थूक ही इस का प्रमाण है । सनत् कुमार ने जब थूक कर देखा, तो उस में कीड़े दृष्टिगोचर हुए। '
अब तो चक्रवर्ती की हताशा का पार न रहा । वह विचार करने लगा. कि क्या यह संसार तथा शरीर की क्षणिकता है !
शीर्यते-जीर्यते इति शरीरम् । जो शीर्ण-जीर्ण होता हो, उसी का नाम शरीर है । मैंने मोहांध बन कर इस शरीर तथा रूप का अभिमान क्यों किया ? इस असार शरीर का क्षणमात्र का विश्वास नहीं है । असार में से सार को शीघ्र ही निकाल लेना चाहिए । संयम तथा तप के द्वारा देह को सार्थक करना चाहिए।"
अब तो चक्री सनत्, मुनि बन चुके थे। समस्त परिवार ६ मास तक उन के पीछे-पीछे जा कर उन को प्रत्यावर्तन (लौटने) के लिए मनाता रहा, परन्तु सनत् कुमार महामुनि न केवल शरीर से विरक्त हो चुके थे, अपितु भोजन की लालसा से भी मुक्त हो चुके थे। अनियमित रूप से सदैव नीरस आहार ग्रहण करने के कारण उन के शरीर में अनेक व्याधियां उत्पन्न हो गई। सप्तविध रोगों (सोज, ज्वर, श्वास, अरुचि, कण्डू, अपच, चक्षुवेदना) के प्रति निरपेक्ष हो कर सनत् कुमार ने तप, आत्मध्यान तथा साधना में स्वयं को तन्मय कर लिया। परिणामतः ७०० वर्ष की उत्कट साधना से उनमें अनेक लब्धियां प्रकट हुईं। ___इन्द्र महाराज ने स्वर्ग में देवों के सन्मुख पुनः सनत् मुनि के शरीर के प्रति अमोह तथा सहिष्णुता की प्रशंसा की तथा कहा, कि रोगी होने पर भी चिकित्सा से निरपेक्ष ये मुनि, लोक में अद्वितीय हैं । दोनों देव पूनः वैद्य का रूप बना कर 'महामुनि के पास आए तथा रोग की चिकित्सा करने के लिए उन की सम्मति की कामना की। महामुनि ने कहा, "हे वैद्य
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