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प्रथम प्रकाश २७. अक्षीण महानस-अल्पान्न बहुत लोगों को भरपेट खिलाया
जाए, तो भी कम न हो। २८. अक्षीण महालय-अल्प स्थान में भी असंख्य देवादि को. .
बिठाने की शक्ति । २६. संभिन्न श्रोतो लब्धि- कान आदि प्रत्येक इन्द्रिय से प्रत्येक
इन्द्रिय का विषय ग्रहण करने की शक्ति । योग से प्राप्त लब्धियों के सम्बन्ध में सनत् कुमार चक्री का
+दृष्टान्त* हस्तिनापुर नगर में चौथे चक्रवर्ती सनत् कुमार हुए। वे रूप लावण्य में अनुपम थे । स्वर्ग में इन्द्र महाराज के द्वारा सनत् कुमार के रूप की प्रशंसा सुन कर दो देवता,सनत् कुमार को देखने के लिए इस धरा पर आए। उन्होंने चक्रवर्ती को सर्व प्रथम स्नान के लिए उद्यत देखा । उस के रूप को देख कर वे देव अत्यन्त आश्चर्य पुलकित हो गए। उन्होंने विचार किया, कि इन्द्र ने इन के रूप का जैसा वर्णन किया था, यह रूप तो उस से भी अधिक है। ऐसा रूप तो देवताओं का भी नहीं होता । चक्री सनत् ने पूछा, कि आप यहां क्यों आए हैं ? तो देवों ने उत्तर दिया, कि इन्द्र के द्वारा तुम्हारे रूप का वर्णन श्रवण कर हम तुम्हें देखने आए हैं।
__ चक्री सनत् ने तुरन्त उत्तर दिया, "अभी तो मैं स्नान करने जा रहा हूं, मैंने शरीर पर तेल की मालिश की हुई है। अभी मेरा रूप क्या देखते हो? जब मैं रत्नाभूषणों से अलंकृत हो कर राज्य सिंहासन पर बैलूं, तब तुम मेरे रूप को देखना।”
जब चक्री सनत् राज सिंहासन पर आ कर बैठा, तो उस को देखते ही देवों के मुख मण्डल निस्तेज हो गए ! वे निराश होकर सोचने लगे, "अहो ! मानव देह की कैसी नश्वरता।" सनत् कुमार ने उन की उदासी का कारण पूछा, तो उन्होंने प्रत्युत्तर दिया, "हे सम्राट ! अब तेरा रूप पूर्ववत् नहीं रहा । तेरे शरीर में इस समय १६ रोग उत्पन्न हो चुके हैं। चक्रवर्ती ने पूछा,
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